
आम शहरों की तरह मेरे शहर में भी एक पार्क है। पार्क तो वैसे कई और भी हैं और सभी की हालत एक जैसी ही है, लेकिन फिलहाल मैं यहां जिस पार्क की बात करने जा रहा हूं वह एक ही है। पार्क, जैसा कि सभी जानते हैं, शहरी जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। सरकारी तौर पर इनके जो उपयोग गिनाए जाते हैं, वे वास्तव में बहुत कम होते हैं, इस तरह से सरकार या म्युनिसिपैलिटी वाले पार्क तो बनवा देते हैं, लेकिन इनके उपयोग की दो-चार मोटी-मोटी बातें गिनाकर उनके महत्व को गौण कर दिया जाता है, जो कि खेदजनक है।
जैसे कि आंकड़ों से पता चलता है, शहरी क्षेत्रों में भी बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है और लगातार बढ़ती बेरोजगारी के चलते इन पार्कों का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। आम बेरोजगार जहां टाइम पास करने के लिए इन पार्कों में आते हैं और दिन भी निरुद्देश्य इन पार्कों में घूम-टहल कर शाम को वापस लौट जाते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ विशिष्ट किस्म के बेरोजगार इन पार्कों में बैठकर रोजगार संबंधी योजनाएं भी बनाते हैं। दिन के समय ये बेरोजगार इस तरह की योजनाओं का मास्टर प्लान तैयार करते हैं और रात के अंधेरे में आसपास के किसी घर का ताला तोड़कर या घर में मौजूद लोगों को डरा-धमकाकर अपनी योजनाओं को अमली जामा पहनाते हैं।
पार्कों का एक अन्य योगदान हमारी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने में भी है। इस सांस्कृतिक विरासत को अलग-अलग युगों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता रहा है, आजकल इसे छेड़छाड़ कहा जाता है। कहते हैं कि पहले जंगल नामक एक स्थान होता था, जहां काफी संख्या में पेड़-पौधे होते थे और इन जंगलों में छेड़छाड़ की क्रिया संपन्न की जाती थी। एक बार एक ऐसे ही जंगल में इंद्र ने अहिल्या को छेड़ा था और श्रीकृष्ण ने तो यमुना किनारे वाले वृन्दावन नामक पूरे जंगल को ही छेड़छाड़ की भूमि बना डाला था। उस समय इसे रास लीला कहा जाता था।
दुष्यंत नामक एक बिगड़ैल शादीशुदा राजकुमार तो इससे भी आगे निकल गया था। उसने एक जंगल में शकुन्तला नामक एक नितांत कुंआरी कन्या को छेड़ा था और बाद में जब उस कन्या ने पुत्ररत्न को जन्म दिया तो दुष्यंत ने उसे पहचानने से भी इंकार कर दिया था। और तो और एक बार एक जंगल में एक महिला ने भी एक पुरुष के साथ छेड़छाड़ की थी और ऐसा करके उसने यह साबित कर दिया था कि यदि जंगल उपलब्ध हों तो अपने देश में महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे नहीं रहेंगी। छेड़छाड़ करने वाली उस महिला का नाम मेनका था और छेड़छाड़ का शिकार हुए पुरुष का नाम विश्वामित्र था। अब चूंकि जंगल नहीं हैं और जो हैं भी उन पर वन माफिया ने कब्जा किया हुआ है, लिहाजा जंगलों के इस दायित्व के निर्वहन की जिम्मेदारी पार्कों ने अपने ऊपर ले ली है। दिन के समय इन पार्कों में छेड़छाड़ की आवश्यक परिणिति के रूप में आत्मिक स्तर पर जो संबंध स्थापित होते हैं, शाम के झुटपुटे में या रात के अंधेरे में उन्हें विशुद्ध शारीरिक स्तर पर ला खड़ा करने का श्रेय भी इन्हीं पार्कों का जाता है।
कई बार ये पार्क बाहरी लोगों को भी शरण देते हैं, यानी जो लोग आत्मा के स्तर पर इन पार्कों से बाहर संबंध स्थापित करते हैं, वे भी यहां आकर अपने संबंधों को शारीरिक आयाम दे सकते हैं। कुछ पार्कों में हनुमान जी का मंदिर भी बनाया जाता है। नौजवान इन मंदिरों में जाकर हनुमान जी से बल और पौरुष प्राप्त करते हैं। बल और पौरुष किसी महिला पर सफलतापूर्वक बलात्कार करने के काम आते हैं।
फिलहाल मैं अपने शहर के पार्क की बात कर रहा था। इसे रोज गार्डन के नाम से पुकारा जाता है। हालांकि यह पुरातत्व विषय के छात्रों के लिए शोध का विषय हो सकता है कि इस पार्क में कभी गुलाब उगते और फूलते थे या नहीं। जहां तक पार्क के रखरखाव का सवाल है, यह जिम्मेदारी अपने शहर के म्यूनिसिपैलिटी के मजबूत कंधों पर है। म्यूनिपैलिटी वालों ने पार्क के रखरखाव में कोई कमी नहीं छोड़ी हुई है। वैसे तो किसी भी कोने से इस पार्क में घुसा जा सकता है, बावजूद इसके पार्क में गेट नाम की एक जगह है। इसी गेट पर पार्क के रखरखाव के मद्देनजर एक सूचना पट लगा दिया गया है, जिस पर कुत्तों के पार्क में प्रवेश पर सख्त पाबंदी संबंधी सूचना लिखी गई है।
जैसा कि सभी जानते हैं, अभी तक हमारे यहां कुत्तों को साक्षर बनाने के लिए कोई अभियान नहीं चलाया जा सका है, हर छोटे-बड़े अभियान के लिए कर्ज देकर हम भारतीयों पर रोज नए अहसान लादने वाला विश्व बैंक भी इस मसले पर रहस्यमय कारणों से मौन साधे बैठा है। नतीजा यह है कि अपने यहां के तमाम आम और खास कुत्ते अभी तक निरक्षर ही हैं। चूंकि वे पूरी तरह से निरक्षर हैं, लिहाजा गेट में लिखी गई उस सूचना को पढ़े बगैर ही अंदर घुस जाते हैं। अंदर घुसने के बाद कुछ तो थोड़ी देर हवा खाकर बाहर निकल आते हैं, लेकिन कुछ स्थाई रूप से सपरिवार इसी पार्क में डेरा जमा लेते हैं।
पार्क में ये कुत्ते अन्य कार्यों के अलावा अपने पेट की सफाई जैसे नितांत निजी कार्य को भी सार्वजनिक रूप से संपन्न करते हैं, अब चूंकि यह आम धारणा बन गई है कि आदमी की जिन्दगी कुत्ते से भी बदतर हो गई है, लिहाजा कुत्तों की देखा-देखी मनुष्य जैसे दिखने वाले कुछ प्राणी भी पार्क के किसी कोने में इस तरह की क्रिया संपन्न कर देते हैं, ताकि उन्हें कम से कम कुत्तों का जितना दर्जा मिल जाए।
जहां तक गाय-भैंसों का सवाल है, चूंकि इनके प्रवेश पर रोक संबंधी कोई सूचना गेट पर नहीं है, लिहाजा ये बिना किसी दिक्कत के पार्क में जा सकते हैं। यूं तो गाय-भैंसे पार्क में उग आई फालतू किस्म की वनस्पतियों को खाने के इरादे से ही वहां जाते हैं, लेकिन अन्दर जाकर, साल में एक-दो बार नियमित रूप से लगाए जाने वाले पौधों को खाना भी इनकी मजबूरी बन जाती है।
जैसा कि सभी जानते हैं, गाय भैंसें बहुत ही खुद्दार किस्म के प्राणी होते हैं। इसलिए वे किसी का अहसान अपने ऊपर नहीं रखते और इस पार्क में जो कुछ खाते हैं, उसे एक विशेष प्रक्रिया के माध्यम से गोबर नामक वस्तु में बदलकर वहीं छोड़ आते हैं। गाय भैंसों के इस तरह के कार्यक्रम का एक विशेष लाभ यह होता है कि पार्क में हर साल, बल्कि साल में दो-तीन बार पौधरोपण करने के लिए बजट हासिल करने की सुविधा मिल जाती है। इस तरह के बजट का एक बड़ा हिस्सा म्यूसिपैलिटी और अन्य संबंधित विभाग के बड़े अफसरों के बीवी-बच्चों को कुपोषण से बचाने के काम आता है और बाकी हिस्से से जो पौधे मंगवाए जाते हैं उनमें से कुछ गाय भैंसों की खाद्य समस्या के मद्देनजर पार्क में लगा दिए जाते हैं और बाकी शहर के सेठों और साहूकारों को ताजी हवा उपलब्ध करवाने के इरादे से बेच दिए जाते हैं।
अत: सिद्ध हुआ कि पार्क एक बहुत ही उपयोगी वस्तु है।
इस पार्क की अपार महिमा से परिचित कराने केलिये तहे दिल से धन्यवाद्
ReplyDeleteऐसा ही होता है