Wednesday, July 13, 2011

काया और माया का फेर


पिछले दिनों देश में दो बड़ी घटनाएं हुईं, एक तो भ्रष्टाचार को लेकर बड़ा हो-हल्ला हुआ। अन्ना हजारे जंतर-मंतर पर बैठ गये। उनके समर्थन में वहां बहुत सारे लोग पहुंचे, जो नहीं पहुंचे वे इंटरनेट पर एकजुट हुए। उनके सामने केंद्र की सरकार झुक गयी और बाद में पता चला कि अकड़ गई। उधर बाबा रामदेव कहां चुप बैठने वाले थे, लिहाजा वे रामलीला मैदान में जाकर बैठ गये, पर पुलिस से उनका बैठना देखा गया, आधी रात को लठ चला दिये। बेचारे बाबा किसी महिला के कपड़े पहनकर भागने लगे, पर पकड़े गये। दूसरे दिन पुलिस उन्हें हरिद्वार के पास जौलीग्रांट हवाई अड्डे पर छोड़ गई। बहरहाल इस पर ज्यादा लिखने का कोई तुक नहीं है, सभी टीवी पर देख चुके हैं और अखबारों में पढ़ चुके हैं। मेरा विषय यहां दूसरी घटना है, जिसके बारे में लिखने जा रहा हूं।
यह घटना पता नहीं लोगों को बड़ी लगी या नहीं पर मुझे लगी और इसीलिए इस घटना पर मैं की-बोर्ड चलाने बैठा हूं। हुआ यह कि एक बड़े अखबार में एक बड़े लेखक का एक बड़ा लेख छपा। अखबार को मैं बड़ा इसलिए कह रहा हूं कि वह अखबार दावा करता है कि उसे देश के सबसे ज्यादा लोग पढ़ते हैं। लेखक को बड़ा इसलिए लिख रहा हूं कि लेख के आखिर में पतले अक्षरों में लिखा है कि लेखक उसी अखबार की एक मैग्जीन की एक भाषा विशेष के संस्करण के संपादक हैं और लेख को बड़ा इसलिए कह रहा हूं कि कोई भी लेख यदि किसी अखबार के संपादकीय पेज पर जगह पा ले तो वह अपने आप ही बड़ा लेख हो जाता है।
मुझे लग रहा है प्रस्तावना कुछ ज्यादा ही खिंच गई है, एकता कपूर छाप सीरियलों की तरह। चलिए मुख्य विषय की ओर लौटते हैं। उस लेख का शीर्षक है ‘‘काया और माया दिखाने की चीज नहीं होते’’। लेख में इस बात पर सख्त अफसोस जताया गया है कि आजकल की महिलाएं मॉडर्न कपड़े पहन रही हैं। मुझे परम संतोष हुआ कि लेखक महोदय लेखक होने के साथ ही महिलाओं के कपड़ों को निहारने का काम भी काफी जिम्मेदारी के साथ निभा रहे हैं और लगे हाथ कपड़ा पुलिस का रोल भी निभा रहे हैं। कपड़ा पुलिस मैं उन लोगों को कहता हूं, जो तू कौन मैं खामख्वाह की तर्ज पर लोगों, और खासकर महिलाओं के कपड़ों को निहारने का काम करते हैं। कपड़ा पुलिस किस्म के लोग इस बात से बेहद चिन्तित रहते हैं मॉडर्न कपड़ों से महिलाओं के शरीर भरे-पूरे लगते हैं और इससे हमारी संस्कृति का सर्वनाश हो गया है। गोया संस्कृति ऐसी टुच्ची चीज हो गई कि एक महिला के कपड़े उसे रसातल में पहुंचाने के लिए काफी हों।
लेख को पढ़कर लगा कि कपड़ा पुलिस लेखक महोदय को जीव विज्ञान का भी अच्छा-खास ज्ञान है। लेख में जीव विज्ञान का हवाला देकर बताया गया था कि महिलाओं को मॉडर्न कपड़े बिल्कुल भी नहीं पहनने चाहिए, क्योंकि उनके ऐसे कपड़े देखकर पुरुषों के मन में क्या-क्या विचार उठते हैं, महिलाएं उसे नहीं समझ सकतीं। लेखक के अनुसार पुरुष के शरीर में कुछ खास तरह के एंजाइम होते हैं जो किसी भी मॉडर्न किस्म की महिला को देखकर सक्रिय जाते हैं। हालांकि किस जीव वैज्ञानिक ने पुरुष के शरीर के उस खास एंजाइम की खोज की उसका नाम लेखक ने नहीं लिखा, कहीं खुद ही न खोज लिया हो अपने ही शरीर में।
जहां तक एंजाइम की बात है तो स्त्रियों और पुरुषों के शरीर में कुछ खास एंजाइम तो होते ही हैं, जो दोनों को एक दूसरे की ओर आकर्षित करते हैं, उनमें प्रेम संबंध स्थापित होते हैं, जो सृष्टि को आगे बढ़ाने में मददगार होते हैं। फिर बीच में ये मॉडर्न कपड़े कहां से आ टपके? वैसे भी लेखक महोदय को मैं एक बात तो यह जरूर कहना चाहूंगा कि खाना, पहनना और प्रेम करना किसी भी व्यक्ति कें नितांत निजी मामले होते हैं, कोई भी व्यक्ति, चाहे वह बड़ा लेखक ही क्यों न हो, किसी के इन निजी मामलों में ताकझांक कैसे कर सकता है और यदि कर रहा है तो वह किसी के व्यक्तिगत अधिकारों का हनन कर रहा है।
जहां तक मॉडर्न कपड़ों वाली महिलाओं को देखकर पुरुष में लेखक वाले उन खास एंजाइम के सक्रिय हो जाने का सवाल है तो मैं यह महत्वपूर्ण जानकारी लेखक महोदय और उनके जैसे विचार रखने वाले लोगों को जरूर दूंगा कि यदि सच में ऐसा होता तो भीख मांगने वाली महिलाओं, मानसिक संतुलन खो बैठी मैली-कुचैली महिलाओं, फुल ड्रेस में रहने वाली सरकारी स्कूलों की बच्चियों और गांवों में रहने वाली घूंघटवाली महिलाओं के साथ बलात्कार नहीं होते। इस देश में यह सब हो रहा है। यदि एंजाइम केवल मॉडर्न महिलाओं को देखकर ही सक्रिय होते हैं तो पूछा जा सकता है कि बेचारी सी इन महिलाओं के साथ यह सब क्यों हो रहा है?
आपको नहीं लगता कि महिलाओं को गलत बताने के लिए पुरुष वर्ग ने एक नया हथियार पा लिया है? मैं मानता हूं कि मॉडर्न या अच्छे कपड़े पहनकर महिलाएं ज्यादा सुन्दर दिखने लगती हैं, लेकिन क्या सुन्दर दिखना पाप है। लेखक महोदय और उन जैसे तमाम लोग आखिर सुन्दरता को सुन्दरता की तरह क्यों नहीं लेते, क्यों वे हर जगह अपनी दिमागी गंदगी को उड़ेल देते हैं? लेकिन पुरुष हमेशा इस प्रयास में रहा है कि किसी न किसी तरह से खुद को महिला से ङ्घोष्ठï साबित किया जाय। किसी महिला से बलात्कार करने को वह अपनी मर्दानगी मानता है, लेकिन जब बलात्कार के दोषियों को दंड देने के लिए सख्त कानून बने तो महिला पर बलात्कार करने को पुरुष का पुरुषोचित अधिकार मानने वाले लोग बलात्कार में महिला की गलती निकालने के प्रयास में जुट गए हैं। जीव विज्ञान के (कु)तर्क देकर यह साबित करने का प्रयास किया जा रहा है कि देखो जी यदि महिला मॉडर्न कपड़े पहनेगी तो जीव विज्ञान के नियम के अनुसार उसके साथ बलात्कार तो होगा ही होगा। कानून बेशक बलात्कारी को सजा दे दे, लेकिन कम से कम समाज की नजरों में तो इस तरह के प्रयास करके उसे दूध का धुला और जीव विज्ञान के नियमों तथा महिलाओं के फैशन का मारा साबित किया ही जा सकता है, यानी बलात्कार को कानूनी न सही, सामाजिक स्वीकृति तो मिल ही जाए।
एक और बात जो इस लेख में गौर करने लायक है, इसे पढ़कर तो आपको मानना ही पड़ेगा कि लेखक महोदय का इरादा क्या है। लेख में हर्षद मेहता का उदाहरण दिया गया है, कहा गया है कि कई लोग दो नंबर का पैसा कमा रहे हैं, लेकिन अपनी माया को वे दिखा नहीं रहे हैं और मौज कर रहे हैं, लेकिन हर्षद ने ऐसा नहीं किया, उसने अपनी माया को दिखाया और बर्बाद हो गया। तो क्या लेखक महोदय महिलाओं से यह कहना चाहते हैं कि वे भीतर से तो जो कुछ भी करें, यानी हर्षद मेहता की तरह खूब दो नंबरी काम करें, लेकिन बाहर से लज्जाशीला और सौम्यता की मूर्ति नजर आएं और केवल देखने में ही आदर्श भारतीय नारी की छवि पेश करें, हर्षद मेहता के अलावा उन लोगों की तरह जो खूब कमा रहे हैं, लेकिन बाहर से पूरी तरह से ईमानदार नजर आ रहे हैं, यानी भेड़ की खाल पहने भेडि़ए। कम से कम महिलाओं को इस तरह की सीख न दें लेखक महोदय। वे जैसी हैं वैसी ही अच्छी हैं, साधारण कपड़े पहनें या फिर फैशनलेबल मॉडर्न कपड़े, हमें तो वे हर हाल में अच्छी लगती हैं। आप हो सके तो अपने दिमाग की गंदगी को निकाल बाहर करें और ऐसा न कर सको तो महिलाओं को भेड़ की खाल पहनकर अंदर से भेडिय़ा बनने की सलाह तो न ही दें।

Friday, April 29, 2011

अमरूद में आओ प्रभो


हे लोगों को छप्पर फाड़कर देने वाले! हे अदनान सामी को लिफ्ट करवाकर बंगला मोटर कार दिलाने वाले! हे मेरे साथ काम करने वालों को पता नहीं कहां से खूब सारा पैसा दिलाने वाले! आखिर इस बार भी तू मुझे धोखा दे गया। मुझे उम्मीद थी कि इस बार तू जरूर मेरे ही घर आएगा, लेकिन तूने ऐसा नहीं किया। इस बार अपने लिए तूने किसी दूसरे शहर के एक भाई का टमाटर चुना। सुना है कि उस टमाटर की चर्चाएं खूब जोर-शोर से हैं। शहर भर के और दूसरे शहरों से भी लोग वहां जाकर भेंट उपहार चढ़ा रहे हैं। वह भाई जिसका वह टमाटर था, ज्यादा नहीं तो थोड़ा बहुत तो अमीर हो गया समझ लो। कुछ नहीं तो थोड़ा-बहुत पुराना कर्जा तो उतार ही लेगा।
दरअसल मैं भी कई दिनों से तेरे आने की प्रतीक्षा कर रहा हूं। आज तक मैं ऐसे कई लोगों को देख चुका हैं, जिसे एक कहावत के अनुसार तूने फर्श से अर्श पर पहुंचा दिया। मेरे ऑफिस में ही देख, वो वाला मेरा सहयोगी, तू अच्छी तरह जानता है क्या है उसकी योग्यता, तनख्वाह भी मेरे से बहुत कम पाता है, पर उसके ठाठ तो देख, उसके पास बाइक है, कार है, घर में एयरकंडीशनर है, कभी बटुआ खोलता है तो पांच-पांच सौ के नोट जीभ बाहर निकाले हांफते नजर आते हैं। और मेरा बटुआ तो देखा है न तूने, उसमें में बीस का नोट जिस दिन हो उस दिन मैं खुद को अमीरों की गिनती में शुमार करने लगाता हूं। इसके अलावा मेरे बटुए में सेलरी अकाउंट का एक एटीएम कार्ड है, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं, क्योंकि अकाउंट के सारे पैसे तो दस से पहले ही खत्म हो जाते हैं।
मैंने सुना था कि तू सबका ध्यान रखता है। आसपास के लोगों को इस तरह अमीर होता देख मुझे पूरा विश्वास था कि तू मेरा भी ध्यान रखेगा। जब से तूने लोगों के घरों में फलों और सब्जियों में प्रकट होना शुरू किया है, तब से मैं भी लगातार सब्जियां खरीद रहा हूं। तेरे प्रकट होने के पसंदीदा फल व सब्जी जैसे टमाटम, पपीता और सेब मैं नियम से खरीद रहा हूं। जेब की सख्त कड़की के बावजूद कोई न कोई जुगाड़ करके सब्जी और कभी-कभी फल खरीद लेता हूं, सिर्फ इस उम्मीद के साथ कि किसी न किसी दिन किसी फल या किसी सब्जी में तू जरूर प्रकट होगा और तब मैं अगला पिछला सारा चुकता कर डालूंगा।
लेकिन तू आज तक नहीं आया। आज सवेरे अखबार की उस खबर ने तो मुझे अंदर से तोड़कर रख दिया है, जिसमें किसी और शहर में एक भाई के घर टमाटर में तेरे प्रकट होने की सूचना दी गई है। आखिर तू मुझे कब तक इस तरह से नजरअंदाज करता रहेगा। कब तक तू इसी तरह मुझे सताता रहेगा। मैं जानता हूं कि तू जानबूझ कर मेरे साथ इस तरह के खेल खेल रहा है। उस दिन जब तेरी मूर्तियां लोगों का दूध गटकने में लगी हुईं थीं, लोग अपने बच्चों के हिस्से का दूध तेरी मूर्तियों को पिला रहे थे, शहर में दूध की कीमतें दुगुनी हो गई थीं, बच्चे बिना दूध के बिलबिला रहे थे लेकिन तू था कि लोगों का दूध बिना डकार मारे पीता जा रहा था। याद है कि मैं भी किसी तरह से एक लोटा दूध का जुगाड़ करके मंदिर पहुंचा था, लाख प्रयास के बाद भी तेरी मूर्ति ने मेरे हाथ से दूध नहीं पिया। मैंने खूब कोशिश की, पर नहीं। शर्म के मारे मुझे वहां मौजूद लोगों के सामने झूठी घोषणा करनी पड़ी कि मूर्ति ने मेरा वाला दूध भी पी लिया है।
और उस दिन, जब मेरे पड़ोस के एक घर में रखी तेरी तस्वीर में आशीर्वाद की मुद्रा में उठी हथेली से बभूति गिरने लगी थी। देखते ही देखते पड़ोसी के घर में भक्तों का तांता लग गया था। लोग अंदर जाते और तेरी हथेली से गिरी हुई उस बभूति का टीका माथे पर लगाकर बाहर लौट आते। थोड़ा सा पुण्य, सच पूछो तो मैं जब भी कोई पुण्य कार्य करने की सोचता हूं, तो अंदर से सागर पार होने या फिर मोक्ष की कोई लालस नहीं होती बस किसी पुण्य से थोड़ा पैसा आ जाए और लाला का पिछला दो महीने का हिसाब चुकता कर दूं, यही मेरी लालसा रहती है। तो इसी लालसा को लिए हुए मैं भी अपने उस पड़ोसी के घर गया था। हालांकि वह पड़ोसी बड़े खडूस किस्म का इंसान था, हम जैसों से बात करना तो वह अपनी शान के खिलाफ समझता था। स्थिति की नजाकत को भांपते हुए मैंने भी उससे पिछले दो-तीन साल से कोई बात नहीं की थी। लेकिन आज वह वैसा खडूस नहीं लग रहा था। मैं गेट पर पहुंचा तो उसने स्वागत किया और सीधे तेरी उस तस्वीर तक ले गया, जिसकी हथेली से बभूति गिर रही थी। पड़ोसी भेंट सामने रखे पात्र में डालने और हथेली को गौर से देखते रहने की हिदायत देकर बाहर चला गया। उस दिन भी तूने मेरे साथ धोखा किया। काफी देर तक मैं वहां बैठा रहा, पर मजाल क्या कि तेरी तस्वीर ने एक तिनका भी बभूति का टपकाया हो। अलबत्ता भेंट जो देनी पड़ी वह नुकसान अलग करवा दिया। लेकिन बाहर आने से पहले तस्वीर के पास जल रही अगरबत्ती की राख मुझे माथे पर लगानी पड़ी, ऐसा नहीं करता तो तेरे भक्त मुझे पापी करार दे देते।
चल कोई बात नहीं, इतने दिन कड़की में काटे, कुछ दिन और सही, लेकिन अबकी बार ऐसा मत करना, अब जरूर मेरे घर में आना। और हां, कड़की कुछ ज्यादा चल रही है यार। लगातार कलम घिसाई के बाद भी इतना नहीं मिलता कि आटा और नमक के बाद सब्जी और फल भी खरीद लू। हां इन दिनों अमरूद काफी सस्ता चल रहा है। मुझे लगता है कि दो तीन अमरूद रोज खरीद ही लूंगा। इसलिए तू जिस भी दिन मेरे घर आए अमरूद में ही आना। पर देर न लगाना, इस अमरूद का भी क्या भरोसा, पता नहीं कब महंगा हो जाए।
अब मैंने सब कुछ तेरे ऊपर छोड़ दिया है। मैं जितना कर सकता था, कर लिया। खूब मेहनत की। पर क्या मिला? जितना कमा पाया, वह इतना कम है कि बताते हुए शर्म आती है और जिस रकम को बताते हुए शर्म आए उसमें बच्चों को कैसे पाला जा रहा है, इसे तू अच्छी तरह से समझ सकता है। पर पता नहीं क्यों तू मेरी प्रोब्लम समझने के लिए ही तैयार नहीं है। यह आखिरी मौका है या तो मेरे घर में अमरूद में आ या फिर मुझे में उसी तरह लिफ्ट करवा दे जैस अदनाम सामी को किया था, या फिर मुझे भी मेरे उस मूर्ख सहयोगी की तरह गाड़ी, मकान और बटुए में पांच-पांच सौ के नोट दिला दे, यदि अब भी तूने ऐसा नहीं किया तो याद रखना एक और व्यंग्य लिख मारूंगा। फिर न बोलना क्यों लिख दिया।

Tuesday, April 26, 2011

सचिन, सांई और तसलीमा

मरना तो नहीं चाहिए था, पर सत्य सांई मर गए। होना तो बहुत कुछ नहीं होना चाहिए, पर हो जाता है। किसी भी व्यक्ति को खुद को भगवान के रूप में प्रतिष्ठित तो नहीं करना चाहिए, पर लोग करते हैं। लोगों को ऐसे तथाकथित भगवानों पर विश्वास नहीं करना चाहिए, पर लोग करते हैं। भगवानों को बूढ़ा नहीं होना चाहिए, पर वे हो जाते हैं और एक दिन मर भी जाते हैं। अब क्या किया जाए।
बेचारे सांई भगवान होने के बावजूद बूढ़े भी हो गए और जब आदमी बूढ़ा हो जाता है तो वह मर जाता है, लिहाजा वे भी मर गए। यूं भारतीय परंपरा के अनुसार जब कोई व्यक्ति अपनी उम्र पूरी करके मरता है तो उसकी मौत पर बहुत दुख नहीं मनाया जाता, बल्कि ऐसे लोगों की अर्थी के साथ गाजे-बाजे बजाने का भी चलन था। पर सांई ठहरे भगवान उनकी मौत पर रोना हमारा कर्तव्य था, लिहाजा हम रोए। अभी भी रो रहे हैं।
86 साल के सत्य साईं के मरने पर (माफ कीजिए, महानिर्वाण पर) लोग ढाहें मार-मारकर रोए। अपने सचिन भी रोए, अकेले नहीं पत्नी के साथ रोए। उन्होंने ठीक किया। भारतीय परंपरा के अनुसार किसी भी शादीशुदा व्यक्ति को कोई भी काम अकेले नहीं करना चाहिए, पत्नी के साथ करना चाहिए। इसलिए मुझे बहुत अच्छा लगा कि सचिन अपनी पत्नी के साथ रोए। पता नहीं इससे पहले अपने पिता की मौत पर भी सचिन ऐसे ही रोए था या नहीं और रोए थे तो पत्नी के साथ रोए थे या अकेले। दरअसल, मीडिया ने इस तरह की कोई रिपोर्ट उस समय नहीं दी। बहरहाल। यह सचिन का जाती मामला है, वे किसी की मौत पर रोएं या हंसे। अपना जन्मदिन ही न मनाएं या फिर उपवास रखें।
बात आती है तसलीमा की। अपने ट्विटर पर तसलीमा ने सचिन को नसीहत दी कि उन्हें सांई की मौत पर नहीं रोना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि किसी 86 साल के व्यक्ति की मौत पर क्यों रोना चाहिए और खासकर सचिन को। मैं तसलीमा जी को क्या बताऊं, कि सचिन का रोना जायज था और बिल्कुल जायज था। दरअसल तसलीमा इस बात को समझ ही नहीं पाएंगी, वे ठहरीं भगवान की सत्ता को बकवास बताने वाली, उन्हें भगवानों की दुनिया की कोई जानकारी नहीं है।
मैं यहां तसलीमा जी को बताना चाहता हूं कि एक इंसान की मौत पर बेशक दूसरा इंसान न रोए, और ज्यादातर मामलों में नहीं रोते। रोज कितने लोग मरते हैं। कुछ खा-पीकर, अघाकर मरते हैं, कुछ भूख से बिलखते हुए मर जाते हैं। खा-पीकर मरने वालों की मौत पर रोने के लिए फिर ही कुछ जोड़ी आंखें मिल जाती हैं, क्योंकि उनकी छोड़ी गई संपत्ति पर कब्जा करने के लिए ऐसा करना जरूरी होता है, लेकिन भूख से बिलखकर मरने वाले इंसानों की मौत पर कोई नहीं रोता।
लेकिन, तसलीमा जी ध्यान दें। भगवानों की दुनिया, इंसानों की दुनिया से अलग होती है। आप बेशक न माने, लेकिन सत्य साईं जरूर भगवान थे, आप उनके भक्तों से इस जानकारी को कंफर्म कर सकती हैं और अपने सचिन तो भगवान हैं ही, क्रिकेट के भगवान। ऐसे में जबकि एक भगवान की मौत हो गई हो तो भला दूसरे भगवान का इतना भी फर्ज नहीं बनता कि अपने बिरादर के लिए दो आंसू बहा दे। मेरी समझ में नहीं आता कि आप क्यों भगवानों को इंसानों की दुनिया में घसीटना चाहती हैं। भगवानों को भगवान रहने दें। आप अनीश्वरवादी हैं तो इसका यह अर्थ कतई नहीं कि आप ईश्वरवादियों के ईश्वरों का मजाक उड़ाएं।
तसलीमा जी, आपने अपने ट्विटर पर यह लिखकर सत्य सांई का मजाक उड़ाने का प्रयास किया है कि उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि 2012 में मरेंगे, फिर वे पहले क्यों मर गए। आप यहां भी समझने में धोखा खा गई हैं या फिर आपका इरादा हर हालत में भगवानों की सत्ता को नकारना है। मैं आपको बता देना चाहता हूं कि सत्य सांई मरे नहीं हैं, वे मर नहीं सकते। यह लोगों का भ्रम है कि वे मर गए हैं। वे दरअसल मरे नहीं हैं, उन्होंने तो महानिर्वाण किया है। आपको विश्वास न हो तो कम से कम एक नजर मेरे शहर से छपने वाले हिन्दी के अखबारों पर डाल दें। किसी भी अखबार में उनकी मौत हो जाने की खबर नहीं है, हर जगह उनके महानिर्वाण की बात है। इसलिए आपसे अनुरोध है कि तथ्यों को समझने का प्रयास करें।
उम्मीद करूंगा कि आप आइंदा भगवानों पर इस तरह के आक्षेप करने और उन्हें नसीहत देने की कोशिश नहीं करेंगी। चाहे वे सत्य के सांई भगवान हों या क्रिकेट के सचिन भगवान। भगवान, भगवान होते हैं और भगवान ही रहेंगे।

Friday, March 18, 2011

भांति-भांति के रंग


लाल, हरा, पीला, नीला, बैंगनी....
यही कुल मिलाकर सात रंग
कुल सात रंगों में रची-बची होली
बस सात रंग
पर जब होली नहीं होती
असली रंग तो तब दिखते हैं
आदमी के चेहरे पर
आदमी की फितरत में
आदमी की बातों में
आदमी के मंसूबों में
एक ही रंग में कई रंग
सब कुछ गड्ड-मड्ड
चेहरे पर उजला
बातों में सुनहरा
मुस्कान गुलाबी
और भी न जाने कितने-कितने
खूबसूरत... रंग
पर
सब रंगों के भीतर
कहीं उथले तो कहीं गहरे में
सिमट कर बैठा गहरा काला रंग
इस प्रतीक्षा में कि
समय मिले और
मटियामेट कर दे
सभी रंगों का अस्तित्व ...

Saturday, February 12, 2011

प्यार पर पहरा


वेलेंटाइन-डे पर यह लेख मेरे शहर के उन नव युवक-नवयुवतियों को समर्पित है, जिनके प्यार पर पुलिस का एक अदना सा सिपाही वर्षों से पहरा दिये बैठा है।


कहते हैं, इशक पर जोर नहीं। पर अपने शहर में एक सिपाही जी को पूरी उम्मीद है कि वह अपनी लाठी और अपनी खाकी के जोर पर इस शहर से, और हो सके तो इस पूरी दुनिया से, प्यार का नामोनिशान मिटा देंगे। यूं तो ये सिपाही जी पूरे साल ही प्यार करने वालों के पीछे पड़े रहते है, लेकिन वेलेंटाइन-डे जैसे मौकों का ये बेसब्री से इंतजार करते हैं, ताकि दो-चार लड़के-लड़कियों पर पुलिसिया रोब झाडऩे का मौका मिल सके। इस तरह से वे अपने आपको एक तरफ तो प्रेम को पाप समझने वाली भारतीय परंपरा का वाहक साबित करने का प्रयास करते हैं और लगे हाथ अपनी उस साध को भी पूरी कर लेते हैं, जो जवानी के दौर में शायद पूरी नहीं हुई होगी, हो गई होती तो वे अब ऐसा नहीं करते। सड़क पर यदि एक लड़का और एक लड़की साथ-साथ चल रहे हों तो यह सिपाही जी मान लेते हैं कि वे दोनों आपस में प्रेम कर रहे हैं और अब किसी भी क्षण किसी पेड़ के नीचे या हो सकता है कि बीच सड़क पर ही कुछ ऐसा करने वाले हैं, जो कि सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाना चाहिए।
इस संभावित खतरे से निपटने के लिए सिपाही जी, समय रहते सीधे उन तक पहुंच जाते है और डांट-डपट शुरू कर देते है। अक्सर युवक-युवती उसके आदेश को सिर-माथे पर लगाकर वहां से खिसक लेते हैं, लेकिन कभी-कभी कोई भिड़ भी जाता है और सिपाही जी पिट भी जाते हैं। बताते हैं कि इन सिपाही जी के पास बालों का एक गुच्छा है, जब वे इस तरह से पिट रहे होते हैं तो बालों के उस गुच्छे को रीढ़ की हड्डी के ठीक नीचे वाली जगह पर लगाकर हिलाने लगते हैं और पीटने वालों को आश्वासन देते हैं कि अब उनके साथ ऐसा कुछ नहीं करेंगे, लेकिन दूसरे दिन फिर से जब सिपाही जी सड़क पर उतरते हैं कि बालों के उस गुच्छे को नाक के नीचे वाले स्थान पर चिपकाकर उमेठने लगते हैं। शहर के जिस हिस्से में ये सिपाही जी तैनात हैं, वहां उनका बड़ा मान है, ऐसा लोग बताते हैं। इसका एक फायदा यह होता है कि इस इलाके में रहने वाले अखबारों के संवाददातानुमा लोगों को वैलेंटाइन-डे जैसे मौकों पर हर साल एक खबर लिखने को मिल जाती है, जो अक्सर सिपाही जी की तारीफ में लिखी जाती है, खबर के बीच में सिपाही जी का हर साल फोटो भी छपता है, जिसका पैसा संवाददातानुमा लोगों को अखबार अलग से देता है।
बहरहाल हर लड़के-लड़की को प्रेमी युगल मानने वाले इन सिपाही जी के सामने कभी कभी यह भी समस्या खड़ी हो जाती है कि लड़का-लडकी, जिन्हें वे प्रेमी युगल मानकर चल रहे थे, और उन्हें यह आशंका घेरे जा रही थी कि वे कभी भी ऐसा कुछ करने लगेंगे, जो सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाना चाहिए, दरअसल प्रेमी युगल नहीं होते, कभी-कभी तो वे भाई-बहन भी होते हैं। पर सिपाही जी तो सिपाही जी ठहरे, उनके हाथ में एक अदद लाठी होती है और शरीर पर एक अदद खाकी। वह उन भाई-बहन को भी सीधी चुनौती दे डालते हैं कि इस तरह से सड़क पर न चलें वरना यहीं सड़क पर खाल खींच देंगे, दरअसल उनके पिटने वाला सीन ऐसे ही मौकों पर सामने आता है। बताते हैं कि कई बार सिपाही जी उन लड़कियों के घर तक भी पहुंच जाते हैं, जो उन्हें सड़क पर किसी लड़के के साथ नजर आ जाती हैं, यह बताने के लिए यह जो तुम्हारी लड़की है, वह प्यार करने लगी है और जब तक वे यहां हैं, तब तक भला उनके इलाके में कोई प्यार कर ही कैसे सकता है? अब जो अभिभावक इस बात को समझते हैं कि बच्चे प्यार इसी उम्र में करते हैं, वे तो सिपाही जी को भगा देते हैं, बाकी लोग उनका शुक्रिया अदा करते हैं और आश्वासन देते हैं कि अब उनके रहते, यानी कि सिपाही जी के रहते उनकी लड़की कतई प्यार नहीं करेगी।
जहां तक लड़कों की बात है तो उनकी शिकायत करने के लिए वे उनके घर नहीं जाते। इसका एक कारण यह भी है कि शहर के इस इलाके में लड़कों को इस तरह के कार्य करने की एक तरह से छूट है और सिपाही जी को पता है कि यदि वे लड़कों की शिकायत करने घर तक पहुंच भी गए तो उन्हें कोई खास तवज्जो नहीं दी जाएगी। ऐसी स्थिति में वे लड़कों को मौका-ए-वारदात पर ही सजा दे देते हैं। उन्हें दो-एक डंडे जमा देते हैं या फिर वहीं सड़क पर मुर्गा बनने का फरमान जारी कर देते हैं। मरता क्या न करता के मुहावरे को जिन्दा रखने के ख्याल से ये प्रेमी किस्म के लड़के सिपाही जी के आदेश का पालन करके मुक्ति पा लेते हैं और अगली बार यदि प्यार करना पड़े तो कहीं और निकल जाते हैं।
ये सिपाही जी प्यार के इतने बड़े दुश्मन क्यों बन गए, इस बारे में कई तरह की बातें सुनने को मिलती हैं। ज्यादातर लोगों का मानना है कि जब इन सिपाही जी की उम्र प्यार करने की थी तो इन्होंने भी प्यार किसी का पाने का खूब प्रयास किया। पर दुर्भाग्य देखिए कि उस जमाने में न तो माउथ फ्रेशर जैसी कोई चीज होती थी और न ही कोई ऐसा टूथपेस्ट बनता था, जो इनके मुंह से आने वाली बदबू को मीठी खुश्बू में बदल दे। जब भी इन्होंने किसी लड़की का प्यार पाने का प्रयास किया मुंह की बदबू इनके लिए निराशाजनक साबित हुई। एक बार जो लड़की इनके पास आ जाती, बदबू के मारे दुबारा नहीं आती थी और किसी और से प्यार करने लगती थी। बताते हैं कि पहले इन्होंने मुंह की बदबू दूर करने वाली दवा बनाने की फैक्टरी लगाने की योजना बनाई थी, लेकिन ऐसा करने के लिए इन्हें किसी से पैसे नहीं दिए। तब इन्होंने ठान ली कि वे जमाने में किसी को भी प्यार नहीं ·रने देंगे। संयोग से वे पुलिस के सिपाही बन गए और अब अपनी लाठी और खाकी के बल पर प्यार नाम के चीज को मिटा देने के प्रयास में जुटे हुए हैं।
वैसे इस इलाके के वे सब लोग इनकी खूब तरफदारी करते हैं, जो सभी इन्हीं की तरह मुंह से आने वाली बदबू के मारे हुए हैं। बताते हैं कि एक बार पुलिस अफसर ने इनका तबादला कहीं और कर दिया तो मुंह की बदबू के कारण प्यार करने में नाकाम रहे इलाके के सभी लोग एकजुट हो गए। वे उस अफसर के पास गए, जिसने सिपाही जी का तबादला कर दिया था और सिपाही जी का तबादला रुकवा दिया। नतीजा यह हुआ कि वे अब कई सालों से शहर के इसी इलाके में तैनात हैं और आने वाले सालों में भी यहीं रहेंगे, क्योंकि मुंह की बदबू के मारे लोगों की यहां एक यूनियन बन गई है, इस यूनियन ने घोषणा की है कि यदि सिपाही जी को यहां से कहीं और भेजा गया तो वे चुप नहीं बैठेंगे।

Monday, January 31, 2011

46 का मैं


आज यानी एक फरवरी को मैं 46 साल का हो गया। आपको विश्वास नहीं हो पा रहा है ना, मुझे भी नहीं हो रहा है। दरअसल पिछले पांच साल से मैं हर एक फरवरी को 40 साल का हो रहा था, लेकिन इस बार इस ऑरकुट और फेसबुक ने सारा गुड़ गोबर कर दिया, वरना विश्वास मानिये कि इस बार भी मैं 40 साल का ही होता और शायद आने वाले चार-पांच साल तक भी 40 का ही रहता। पर क्या है कि वो इन दोनों साइटों पर मेरे तमाम दोस्तों और उसके दोस्तों के दोस्तों को मेरी असली उम्र पता चल गयी, सो मजबूरी में मुझे में 40 से पूरे छह साल की छलांग लगाकर 46वें में पहुंचना पड़ा।
वैसे आपकी जानकारी के लिए एक बात और बता दूं। इन साइटों पर अब भी मेरी उम्र 44 बताई जा रही है। असल में चालाकी से मैंने इन साइटों में अपना फर्जी यानी सर्टिफिकेट वाला जन्म वर्ष डाल दिया है। हां, तिथि यानी एक फरवरी असली वाली ही डाली है। अत: साइटों पर देखकर जो लोग मेरी उम्र 44 मान रहे हैं, वे असली उम्र नोट कर लें, और जो लोग मेरे कहे अनुसार अभी तक इस भ्रम में थे कि मैं 40 का हूं वे भी अपनी जानकारी दुरुस्त कर दें। यहां मैं आपको यह भी बताना चाहता हूं कि देखकर कोई मुझे 46 का नहीं बता सकता। मैंने शीशे में आज से खुद को काफी देर तक देखा तो 46 से काफी का कम का लगता हूं। दिल को बहलाने के लिए गालिब ये ख्याल अच्छा है, क्यों?
एक बात मेरी समझ में नहीं आई, जाहिर है कि मेरी समझ में ही नहीं आई तो आपकी समझ में क्या आएगी, कि हम अपनी उम्र छिपाते क्यों हैं। मैं तो लोगों से ही क्या खुद से भी लगातार अपनी उम्र छिपाता रहा हूं। सिर के बाल काले करके रखता हूं, हां, दाढ़ी को जरूर मैंने सफेद दिखने की छूट दे दी है, ताकि लोगों की हंसी का पात्र न बन जाऊं। वैसे उम्र इतनी हो जाने के बावजूद मन से मैं इतना अधेड़ नहीं हुआ हूं। इस लिहाज से आप मुझे दुर्जन भी कह सकते हैं, दरअसल एक जगह मैंने पढ़ा था कि सज्जन पुरुष शरीर से जवान होने के बावजूद मन से बूढ़े होते हैं और दुर्जन शरीर से बूढ़े हो जाने के बाद भी मन से जवान रहते हैं। इस कहावत के अनुसार मैं खुद को दुर्जन मान लेने के लिए तैयार हूं, लेकिन बूढ़ा बनने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं हूं।
सवाल फिर वही कि हम अपनी उम्र छिपाते क्यों हैं? हो सकता है उम्र छिपाने के पीछे सबके अपने-अपने कारण होते हों, लेकिन जहां तक मैं सोचता हूं मैं इसलिए अपनी उम्र छिपाता रहा कि जब भी मैंने अपनी उम्र और उपलब्धियों के बारे में सोचा तो मुझे निराशा हुई। मैंने इस उम्र तक पहुंच जाने के बावजूद कुछ नहीं किया, सिवाय किसी तरह धक्के मारकर अपने बच्चों को पालने के। अब तक मुझे बहुत कुछ लिख लेना चाहिए था, लेकिन नहीं लिख पाया। अखबार के नौकरी के साथ दरअसल रचनात्मक लेखन संभव भी नहीं है। अखबारों में मेरे स्तर के कर्मचारियों का बेदर्दी से दोहन किया जाता है। दरअसल अखबारों में नालायकों की भरमार है, इस तरह के लोग अधिकारियों की चापलूसी करके अपनी नौकरी बरकरार रखते हैं, ऐसे में मेरे जैसे लोग जिनको न अधिकारियों के चरण छूने की आदत होती है और न ही उनके सामने बैठकर चापलूसी करने की, उनके पास अपने बच्चों का पेट पालने के लिए एक ही चारा रह जाता है, कमरतोड़ मेहनत करो और अधिकारियों का डांट खाओ। दरअसल चापलूस नालायकों के हिस्से का काम भी मेरे जैसों को करना ही पड़ता है, जिनका कोई माई-बाप नहीं होता और उनके हिस्से की डांट भी खानी पड़ती है। चापलूस चौड़े होकर अधिकारी के सामने वाली चैयर पर बैठकर कॉफी गटक रहे होते हैं और मेरे जैसा खड़ा होकर डांट खा रहा होता है। कमर टूटने की हद तक की मेहनत और अधिकारी की हर रोज की डांट-फटकार के बाद आखिर रचनात्मक लेखन के लिए गुंजाइश ही कहां रह जाती है?
लेखन न सही, इतना पैसा ही मैं कमा चुका होता कि आगे की जिन्दगी कुछ आराम से कट जाती और बच्चों को पढ़ाने की चिन्ता से मुक्ति मिल जाती, लेकिन ऐसा भी मैं नहीं कर पाया। एक छत की छांव तक संभव नहीं हो पाई। किराये के कमरे में गुजारा करना और किसी तरह खींचतान कर घर का और बच्चों की पढ़ाई का खर्च चलाना, यही होता रहा। इन परिस्थितियों मैं अक्सर खुद से ही अपनी उम्र छिपाता फिरता रहा, यह सोचकर कि अगले दो तीन साल में इतना पैसा कमा लूं तो कि उम्र और उपलब्धियों की बीच की खाई खत्म हो जाए, लेकिन आज तक न इतना पैसा कमा पाया और न ही इतना लेखन कर पाया, लिहाजा बिना कोई उपलब्धि हासिल किये ही मुझे आज इस 46वें साल में अपनी असली उम्र में आना पड़ गया, क्योंकि अब मुझे नहीं लगता कि उम्र और उन्नति की इस खाई को कभी पाट पाऊंगा। उम्र लगातार बढ़ती जा रही है, उपलब्धियों के नाम पर आज भी सिर्फ पेट भराई तक ही सीमित रह गया हूं। ऐसे में अब उम्र छिपाने का कोई मतलब नहीं रह गया है।
अब आप सभी लोगों से उम्मीद करूंगा कि मुझे मेरे 46 वें जन्म दिन पर, और हां आज की मेरी शादी की 22वीं सालगिरह भी है, इसलिए मेरी शादी की 22वीं सालगिरह पर मुझे शुभकामनाएं जरूर दें। वैसे आप न भी तो कोई बात नहीं, मेरी ओर से जो देगा उसको भी धन्यवाद और जो नहीं देगा उसको भी धन्यवाद।

Monday, January 10, 2011

स्कूल ने ले ली दो मासूमों की जान

देहरादून के एक स्कूल के दो बच्चों आठवीं कक्षा की पारुल और 11वीं के विक्की ने रेल से कटकर आत्महत्या कर ली। इसे पुलिस प्रेम प्रसंग को लेकर आत्महत्या का मामला मान रही है। समाचार पत्रों के पाठक भी शायद यही मान रहे हों, लेकिन क्या वास्तव में दोनों को प्रेम के बारे में इतनी समझ होगी कि साथ जीने और साथ मरने का इरादा लेकर वे ट्रेन के सामने कूद गये? शायद नहीं। इस उम्र के बच्चों में विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण हो सकता है, लेकिन एक दूसरे के लिए जान दे देने तक की स्थिति तक वे भावुक नहीं हो सकते।
दरअसल इन दो बच्चों की जान उनके स्कूल ने ले ली। समाचार कहता है कि दोनों के माता-पिता को स्कूल में बुलाया गया था, स्कूल में उनसे क्या कहा गया, यह समाचार में नहीं कहा गया है। दोनों बच्चों को उनके मां-बाप के साथ घर भेज दिया गया। शाम को दोनों बच्चे घर से गायब हो गये और रात को पटरी पर दोनों के क्षत-विक्षत शव मिले। इससे साफ हो जाता है कि दोनों बच्चों ने प्रेम में डूब कर आत्महत्या नहीं की, बल्कि मां-बाप को स्कूल में बुला लिए जाने के कारण पैदा हुए अपराधबोध के चलते ऐसा भयानक कदम उठाया।
आखिर उन दो मासूमों ने ऐसा क्या अपराध किया कि उनके माता-पिता को स्कूल में बुला लिया गया। इतना ही किया होगा कि वे स्कूल में एक-दूसरे से बात कर लेते होंगे, इससे ज्यादा वे बच्चे क्या करते होंगे। साफ है कि स्कूल के शिक्षक और कर्ताधर्ताओं को एक लड़के का एक लड़की के साथ बात करना अच्छा नहीं लगा, यानी कि वे आज भी मध्यकालीन युग में जी रहे हैं, इसीलिए तो बच्चों के मां-बाप को स्कूल में बुला लिया गया यह हिदायत देने के लिए कि वे अपने बच्चों पर नियंत्रण रखें। मासूम बच्चों को लगा कि उन्होंने एक दूसरे से बात करके महान पाप किया है और जाकर जान दे दी।
आठवीं में पढऩे वाली बच्ची को प्रेम की कितनी समझ हो सकती है, इसे समझने के लिए मैं खुद अपनी बेटी का उदाहरण देना चाहूंगा। मेरी बेटी सातवीं में पढ़ती है, यानी कि पारुल से करीब एक साल छोटी। पिछले दिनों मैं अपनी बेटी के दांतों का इलाज करवाने उसे अस्पताल ले गया। अस्पताल में एक होर्डिंग देखकर मेरी बेटी ने सवाल किया, पापा कंडोम क्या होता है? मैंने सवाल को टाल दिया, लेकिन जब बार-बार मेरी बेटी यही सवाल पूछने लगी तो मैंने कहा, बड़ी होकर तुम्हारी समझ में आ जाएगा। सातवीं में पढऩे वाली बच्ची को जब कंडोम के बारे में जानकारी नहीं तो भला आठवीं की छात्रा बेशक वह मेरी बेटी की तुलना भी बहुत ज्यादा खुले वातावरण में क्यों न रहती हो, यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह प्रेम को इतनी गहराई तक समझने लगे कि प्रेमी के साथ आत्महत्या कर ले।
पारुल और विक्की की आत्महत्या पूरे समाज के लिए एक बड़ा संदेश है। यह अभिभावकों और स्कूलों के लिए मंथन का मौका देती है, क्या वास्तव में स्कूलों को बच्चों के प्रति इतना संवेदनहीन होना चाहिए कि दो बच्चे आपसे में बात कर रहे हों तो उसे इतना बड़ा हौव्वा बनाएं कि मां-बाप को बुलाकर बच्चों को अपराधी साबित करें और मां-बाप को भी ऐसे मामलों में बेहद संवेदनशीलता से काम करना होगा।
आज के दौर में जबकि समाजवादी विचारक को-एजुकेशन की जरूरत पर बल दे रहे हैं, ताकि लड़के और लड़कियां एक-दूसरे को जान सकें, ऐसी स्थिति में एक स्कूल द्वारा दो बच्चों के आपस में बातचीत करने के मामले को इस हद तक पहुंचाना कि वे गाड़ी के आगे कूदने के लिए विवश हो जाएं आखिर किस मानसिकता का सबूत है। दो मासूमों की जिन्दगी छीनने के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। छोटी सी उम्र में अपनी जीवन लीला को इतनी वीभत्स तरीके से समाप्त करने वाले दोनों मासूमों को मेरी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि। और बाकी बच्चों के लिए यह संदेश कि जीवन अनमोल है, इसे इस तरह से नहीं खोया करते। जीवन जीने के लिए है। प्रेम और दोस्ती अपराध की श्रेणी में नहीं आते। ये ईश्वर की मनुष्य को दी हुई एक स्वर्गिक अनुभूति है। इसे अनुभव करने के लिए जीना होगा। हमें जिन्दगी इसलिए नहीं मिली है कि हम अपने हाथों उसे समाप्त कर दें। जीवन है तो प्रेम है। जो लोग प्रेम का विरोध करते हैं, वे दरअसल या तो वैचारिक और भावनात्मक रूप से शून्य होते हैं या फिर कुंठित होते हैं।

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बसुकेदार रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड, India
रुद्रप्रयाग जिला के बसुकेदार गाँव में श्री जनानन्द भट्ट और श्रीमती शांता देवी के घर पैदा हुआ। पला-बढ़ा; पढ़ा-लिखा और २४साल के अध्धयन व् अनुभव को लेकर दिल्ली आ गया। और दिल्ली से फरीदाबाद। पिछले १६ साल से इसी शहर में हूँ। यानी की जवानी का सबसे बेशकीमती समय इस शहर को समर्पित कर दिया, लेकिन ख़ुद पत्थर के इस शहर से मुझे कुछ नही मिला.