मरना तो नहीं चाहिए था, पर सत्य सांई मर गए। होना तो बहुत कुछ नहीं होना चाहिए, पर हो जाता है। किसी भी व्यक्ति को खुद को भगवान के रूप में प्रतिष्ठित तो नहीं करना चाहिए, पर लोग करते हैं। लोगों को ऐसे तथाकथित भगवानों पर विश्वास नहीं करना चाहिए, पर लोग करते हैं। भगवानों को बूढ़ा नहीं होना चाहिए, पर वे हो जाते हैं और एक दिन मर भी जाते हैं। अब क्या किया जाए।
बेचारे सांई भगवान होने के बावजूद बूढ़े भी हो गए और जब आदमी बूढ़ा हो जाता है तो वह मर जाता है, लिहाजा वे भी मर गए। यूं भारतीय परंपरा के अनुसार जब कोई व्यक्ति अपनी उम्र पूरी करके मरता है तो उसकी मौत पर बहुत दुख नहीं मनाया जाता, बल्कि ऐसे लोगों की अर्थी के साथ गाजे-बाजे बजाने का भी चलन था। पर सांई ठहरे भगवान उनकी मौत पर रोना हमारा कर्तव्य था, लिहाजा हम रोए। अभी भी रो रहे हैं।
86 साल के सत्य साईं के मरने पर (माफ कीजिए, महानिर्वाण पर) लोग ढाहें मार-मारकर रोए। अपने सचिन भी रोए, अकेले नहीं पत्नी के साथ रोए। उन्होंने ठीक किया। भारतीय परंपरा के अनुसार किसी भी शादीशुदा व्यक्ति को कोई भी काम अकेले नहीं करना चाहिए, पत्नी के साथ करना चाहिए। इसलिए मुझे बहुत अच्छा लगा कि सचिन अपनी पत्नी के साथ रोए। पता नहीं इससे पहले अपने पिता की मौत पर भी सचिन ऐसे ही रोए था या नहीं और रोए थे तो पत्नी के साथ रोए थे या अकेले। दरअसल, मीडिया ने इस तरह की कोई रिपोर्ट उस समय नहीं दी। बहरहाल। यह सचिन का जाती मामला है, वे किसी की मौत पर रोएं या हंसे। अपना जन्मदिन ही न मनाएं या फिर उपवास रखें।
बात आती है तसलीमा की। अपने ट्विटर पर तसलीमा ने सचिन को नसीहत दी कि उन्हें सांई की मौत पर नहीं रोना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि किसी 86 साल के व्यक्ति की मौत पर क्यों रोना चाहिए और खासकर सचिन को। मैं तसलीमा जी को क्या बताऊं, कि सचिन का रोना जायज था और बिल्कुल जायज था। दरअसल तसलीमा इस बात को समझ ही नहीं पाएंगी, वे ठहरीं भगवान की सत्ता को बकवास बताने वाली, उन्हें भगवानों की दुनिया की कोई जानकारी नहीं है।
मैं यहां तसलीमा जी को बताना चाहता हूं कि एक इंसान की मौत पर बेशक दूसरा इंसान न रोए, और ज्यादातर मामलों में नहीं रोते। रोज कितने लोग मरते हैं। कुछ खा-पीकर, अघाकर मरते हैं, कुछ भूख से बिलखते हुए मर जाते हैं। खा-पीकर मरने वालों की मौत पर रोने के लिए फिर ही कुछ जोड़ी आंखें मिल जाती हैं, क्योंकि उनकी छोड़ी गई संपत्ति पर कब्जा करने के लिए ऐसा करना जरूरी होता है, लेकिन भूख से बिलखकर मरने वाले इंसानों की मौत पर कोई नहीं रोता।
लेकिन, तसलीमा जी ध्यान दें। भगवानों की दुनिया, इंसानों की दुनिया से अलग होती है। आप बेशक न माने, लेकिन सत्य साईं जरूर भगवान थे, आप उनके भक्तों से इस जानकारी को कंफर्म कर सकती हैं और अपने सचिन तो भगवान हैं ही, क्रिकेट के भगवान। ऐसे में जबकि एक भगवान की मौत हो गई हो तो भला दूसरे भगवान का इतना भी फर्ज नहीं बनता कि अपने बिरादर के लिए दो आंसू बहा दे। मेरी समझ में नहीं आता कि आप क्यों भगवानों को इंसानों की दुनिया में घसीटना चाहती हैं। भगवानों को भगवान रहने दें। आप अनीश्वरवादी हैं तो इसका यह अर्थ कतई नहीं कि आप ईश्वरवादियों के ईश्वरों का मजाक उड़ाएं।
तसलीमा जी, आपने अपने ट्विटर पर यह लिखकर सत्य सांई का मजाक उड़ाने का प्रयास किया है कि उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि 2012 में मरेंगे, फिर वे पहले क्यों मर गए। आप यहां भी समझने में धोखा खा गई हैं या फिर आपका इरादा हर हालत में भगवानों की सत्ता को नकारना है। मैं आपको बता देना चाहता हूं कि सत्य सांई मरे नहीं हैं, वे मर नहीं सकते। यह लोगों का भ्रम है कि वे मर गए हैं। वे दरअसल मरे नहीं हैं, उन्होंने तो महानिर्वाण किया है। आपको विश्वास न हो तो कम से कम एक नजर मेरे शहर से छपने वाले हिन्दी के अखबारों पर डाल दें। किसी भी अखबार में उनकी मौत हो जाने की खबर नहीं है, हर जगह उनके महानिर्वाण की बात है। इसलिए आपसे अनुरोध है कि तथ्यों को समझने का प्रयास करें।
उम्मीद करूंगा कि आप आइंदा भगवानों पर इस तरह के आक्षेप करने और उन्हें नसीहत देने की कोशिश नहीं करेंगी। चाहे वे सत्य के सांई भगवान हों या क्रिकेट के सचिन भगवान। भगवान, भगवान होते हैं और भगवान ही रहेंगे।
Tuesday, April 26, 2011
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- त्रिलोचन भट्ट
- बसुकेदार रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड, India
- रुद्रप्रयाग जिला के बसुकेदार गाँव में श्री जनानन्द भट्ट और श्रीमती शांता देवी के घर पैदा हुआ। पला-बढ़ा; पढ़ा-लिखा और २४साल के अध्धयन व् अनुभव को लेकर दिल्ली आ गया। और दिल्ली से फरीदाबाद। पिछले १६ साल से इसी शहर में हूँ। यानी की जवानी का सबसे बेशकीमती समय इस शहर को समर्पित कर दिया, लेकिन ख़ुद पत्थर के इस शहर से मुझे कुछ नही मिला.
चाहे वे सत्य के सांई भगवान हों या क्रिकेट के सचिन भगवान। भगवान, भगवान होते हैं और भगवान ही रहेंगे।
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