Saturday, September 25, 2010

बेटी हो तेरे घर

मैं देहरादून में रहता हूँ और मेरे बच्चे फरीदाबाद. नौकरी का सवाल है साहब. आज सुबह मेरी १२ साल की बेटी दीक्षा का फोन आया, पापा आज क्या है?" पता नहीं. डॉटरस डे बेटी ने बताया. मैंने कोग्रेचुलेचुलशॉन दी और वादा किया की फरीदाबाद आऊंगा तो गिफ्ट दूंगा. मुझे अपना ये व्यंग्य याद आया. इसे अपनी बेटी को समर्पित कर रहा हूँ. अभी वह इसका अर्थ शायद न समझ पाए. पर आप जरूर समझेंगे. उम्मीद है इसे सिर्फ एक व्यंग्य के रूप में नहीं लेंगे.



बात उन दिनों की है जब अंधेर नगरी के लोग इस बात को लेकर बेहद परेशान रहने लगे थे कि उनके यहां लड़कियों की संख्या कम होती जा रही है। दरअसल यह परेशानी अंधेर नगरी के लोग अचानक किसी दैवीय शक्ति के कारण नहीं होने लगे थे, लेकिन कई सालों से कभी लड़कियों को पैदा होते ही और कभी कुछ बड़ी होने के बाद मार डालने के कारण इस नगरी के लोगों के लड़कों की शादियां करना मुश्किल होने लगा था।
इस बात को लेकर अंधेर नगरी के अफसर लोग सार्वजनिक रूप से लगातार चर्चाएं करते थे। दरअसल सरकार ने कह रखा था कि अब उनके यहां एक भी लड़की नहीं मरनी चाहिए और मरी तो ठीक नहीं होगा। ऐसे में ये अफसर लोग सभी से कहते थे कि वे बेटियों को बेटों से कम न समझें। कुछ अफसर ने लड़कियों और नारियों की प्रसंशा करने के लिए पुरानी कविताओं की कुछ लाइनें याद कर ली थीं, वे जहां भी जाते उन कविताओं की लाइनों को जरूर सुनाते। लोग उसके भाषण सुनकर आइंदा लड़कियां न मारने का संकल्प तो लेते या नहीं यह पता नहीं चलता, लेकिन वे कविता की लाइनें जिस जोश और खरोश के साथ सुनाते उससे लोग तालियां जरूर बजाते थे। दरअसल लोग खुद इतने समझदार नहीं थे कि उनकी कविता सुनकर तालियां बजाते, बल्कि जब भी वे कविता सुनाते, मंच पर उनके साथ खड़े उनके एक खास सिपहसालार दोनों हाथ अपने सिर के ठीक ऊपर लेजाकर ताली बजाते। इससे लोग समझ जाते है कि अब उन्हें ताली बजानी है और वे ताली बजा देते।
लड़कियां की संख्या कम होने की बात पर चिन्ता जताने की नौ·री करने वाले इन अफसर जी के पास उन्हीं के महकमे का एक ऐसा कर्मचारी था, जो चिन्ता जताने में उनकी मदद करता था। जब भी उन्हें इस बात पर सार्वजनिक रूप से चिन्ता जतानी होती, यह कर्मचारी भी खूब चिन्ता जताता और कई बार तो, बल्कि हर बार ही ऐसा होता कि वह व्यक्ति लड़कियां कम होने की बात पर चिन्ता जताते जताते सार्वजनिक रूप से रो पड़ता। लोग उससे खूब प्रभावित होते, पर पता नहीं क्यूँ उसके रोने के बावजूद भी लोग लड़कियां को न मारने का फैसला नहीं करते। क्योंकि वह अब तक इतनी बार रो चुका है की यदि सचमुच उसके रोने का असर हो रहा होता तो अब तक लड़कियां की संख्या काफी बढ़ जाती।
इस अफसर और रोने वाले उसके सहयोगी की खासियत यह थी कि वे नौकरी को नौकरी की तरह ही करते थे। जैसा कि कई लोग करते हैं. वे नौकरी को निजी जीवन से अलग रखते थे। उन्हें लड़कियां कम होने पर चिन्ता करने की नौकरी करनी थी तो वे करते थे, लेकिन निजी जीवन को इससे अलग रखते थे। यदि उनमें से किसी की पत्नी गर्भवती हो जाती तो वे चुपचाप उसे एक मशीन के पास ले जाते, वह मशीन बता देती कि उनकी पत्नी के पेट में लड़का है या लड़की। यदि लड़का होता तो वे अपनी पत्नी को घी पिलाते और खाने के लिए सूखे मेवे देते और यदि लड़की होती तो अपनी पत्नी को कसाइन के पास ले जाते। वह बेरहमी से उसके पेट में चाकू आदि घुसाकर उस लड़की के टुकड़े-टुकड़े कर देती।
अफसर और उसके आदमियों द्वारा लड़कियां कम होने पर लगातार चिन्ता जताने के बाद भी जब कोई फायदा नहीं हुआ और बड़े हाकिमों ने देखा कि इस पर पैसा तो खूब खर्च हो रहा है, लेकिन फायदा कुछ नहीं है तो उन्होंने एक कानून बनाया। इस कानून में यह व्यवस्था कर दी गई कि जो ऐसा करेगा, यानी कि पेट में पल रही बच्चियों को मरवाएगा, उसे जेल जाना पड़ेगा। लड़की की हत्या कराने वाले मां-बाप, पेट में लड़का है या लड़की, ऐसा बताने वाली मशीन और पेट के भीतर चाकू घुसाकर वहां पल रही बेटी को काटने वाली कसाइन के लिए सजा का प्रावधान रखा गया। लड़का या लड़की बताने वाली मशीन को भी बंद करने लिए कहा गया।
तब अंधेर नगरी में ऐसा हुआ कि जिन लोगों ने ऐसा कानून बनाया या बनवाया था तो उनमें से कुछ की पत्नियां एक बार फिर गर्भवती हो गईं। वे वैसे तो बेहद दयालु किस्म के लोग थे, और जैसी कि उनकी नौकरी थी, वे लड़कियां कम होने के मामले में लगातार चिन्ता जताते थे और लड़कियों की संख्या कैसे बढ़े इस बात पर लगातार विचार करते रहते थे, लेकिन उनके घर में बेटी हो, यह वे किसी भी रूप में बरदाश्त नहीं कर सकते थे। उनका मानना था कि बेटी दूसरे के घर में और बेटा अपने घर में पैदा होना चाहिए, ताकि बेटे की शादी के मामले में कोई दिक्कत न हो, लड़की आसानी से मिल जाए। अब एक बार फिर पत्नी गर्भवती हो गईं तो उनके सामने समस्या आई कि अब क्या हो। वे चुपचाप लड़का या लड़की बताने वाली मशीन के पास गए, जो पिछले कुछ समय से बंद पड़ी हुई थी, और उसके कान में कुछ फुसफुसाए। इसके बाद वह मशीन एक अंधेरे कमरे में चली गई। वे अपनी पत्नी को भी उसी अंधेरे कमरे में ले गए, मशीन से उनके कान में बता किया कि पेट में क्या है।
अब उनके सामने समस्या यह थी कि कसाइन को वे पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि उसने किसी मां के पेट में बच्ची की हत्या की तो उसे जेल जाना पड़ेगा, सो इस समस्या से निपटने के लिए वे कसाइन के पास गए और उसके कान में कुछ फुसफुसाए. उस दिन से कसाइन ने शहर के एक ऐसे इलाके में अपनी दुकान खोल दी जहां बातें इधर की उधर करने वाले, जिन्हें उस जमाने में मीडिया वाले कहा जाता था, न पहुंच सकें। उसके बाद वे अपनी पत्नी को कसाइन की उस दुकान पर ले गए और उसने फिर वही किया जो पहले किया था, लेकिन इस बार यह बात किसी को पता नहीं चली।
कुछ दिन बाद सभी लोगों को अंधेरे कमरे वाली बात पता चल गई। देखते ही देखते वे सभी लोग जो थे तो बहुत ही दयालु, लेकिन वे नहीं चाहते थे कि उनके घर में बेटी पैदा हो वे चाहते थे कि बेटी तो हमेशा दूसरे के घर में ही होनी चाहिए, ताकि उनके बेटे की शादी आसानी से हो जाए। इसलिए जब भी उनकी पत्नियां गर्भवती होतीं, वे अंधेरे कमरे में लगी मशीन के पास ले जाते उसे मोटा पैसा देते, मशीन कान में बता देती। फिर वे अपनी पत्नी को शहर के उस दूर के इलाके में उस कसाइन की दुकान पर ले जाते, मोटा पैसा देते और वह फिर वही करती जो पहले कई बार कर चुकी होती थी। वह मशीन अब भी अंधेरे कमरे में है, शहर के उस इलाके में अब भी ·साइन की दुकान चल रही है और लड़कियों की संख्या अब भी कम होती जा रही है। अंधेर नगरी में अफसर अब भी लड़कियां कम होने पर चिन्ता जता रहा हैं। उसने अब कई नई कविताएं याद कर ली हैं. उनका सहयोगी अब और जोर-जोर से रोने लगा है।

Thursday, September 23, 2010

आओ राजा हम ढोएंगे...

यह व्यंग्य कुछ साल पहले प्रिन्स चार्ल्स की बहु चर्चित और विवादित भारत यात्रा से पूर्व लिखा गया था


हे महाराजाधिराज यानी राजकुमार! कई साल हुए, जब आपके वहां वाली महारानी हमारे यहां आईं थीं और तब- बकौल बाबा नागार्जुन, जवाहर लाल की यही राय हुई थी कि हम उनकी यानी महारानी की पालकी ढोएंगे। अब महारानी न सही आप तो हैं और जवाहर लाल न सही हम तो हैं। जब से हमने सुना है कि तुम आ रहे हो, तो हमने भी यही राय कर दी है कि हम तुम्हारी पालकी ढोएंगे और जरूर ढोएंगे। तुम नहीं जानते कि तुम्हारे आने की खबर हमारे लिए कितनी बड़ी खुशी का विषय है। हमने तुम्हारे आने के लिए पलक-पांवड़े बिछा लिए है। हालांकि तुम्हारी आदत कुछ दादागिरी करने की है, और तुम्हारी इस आदत के कारण कई बार लोग तुम्हारा विरोध करते हैं, लेकिन यहां हमने इस बात की पूरी व्यवस्था कर दी है कि ऐसा कोई नहीं कर सके। हां, वो अंरुधती राय पिछले रोज राजघाट में गई थी विरोध करने, लेकिन उसके ऐसा करने से कोई फर्क नहीं पड़ता, हमने गांधी जी को पहले ही आउटडेटेड घोषित कर दिया है और हम उनकी अहिंसा और वो सब बातें काफी पहले भूल चुके हैं, इसलिए तुम मजे में यहां आ जाओ, बिना किसी चिन्ता के। जैसा कि मैंने कहा, हम पालकी ढोने के लिए कंधों पर तेल मालिश करके बैठे हुए हैं।
हे राजाजी! हमारे देश में अब बाबा नागार्जुन जैसे जनवादी किस्म के कवि भी नहीं हैं, जिन्होंने आपके देश की महारानी की पालकी ढोने वाली कविता बड़े ही व्यंग्यात्मक लहजे में लिखी थी, अबकी तो हम सचमुच ही बहुत ही विनम्र भाव के साथ तुम्हारी पालकी ढोएंगे, बस तुम आ जाओ।
हमने तुम्हारे स्वागत में क्या-क्या किया है, यह जानकार हमें उम्मीद है कि तुम जरूर खुश हो जाओगे। हमने हर संभव प्रयास किया है कि जो-जो चीजें तुम्हें पसंद हैं, वे सब थाली में परोसकर तुम्हारे सामने रखी जाएं। तुम लंबे समय से कह रहे थे कि तुम्हारे यहां का गेहूं खप नहीं रहा है, भंडारण ज्यादा हो रहा है। हमारे यहां भी यही हो रहा था, लेकिन हम तुम्हारे प्रति वफादार हैं, लिहाजा हमने अपने गेहूं से ज्यादा तुम्हारे गेहूं की चिन्ता की और तुम्हारे यहां से 50 लाख टन गेहूं खरीदने की मंजूरी दे दी। जहां तक हमारे यहां के गेहूं का सवाल है तो हम दो-चार सालों तक तुम्हारे यहां का गेहूं सस्ते में बेचते रहेंगे तो हमारे यहां के किसान, जैसा कि तुम्हें पता होगा, खुद को बड़ा ही तुर्रमखां किस्म का मानते हैं, खुद ही गेहूं पैदा करना बंद कर देंगे। वैसे भी एक बात, जो बड़े ही अंदर की बात है, और किसानों तक नहीं पहुंचनी चाहिए, हम तुम्हें बता दें कि हमने अपने यहां के किसानों को यह बताना शुरू कर दिया है कि अनाज की नहीं फूलों की खेती करो। नकद नारायण मिलेगा। यह सब हमने तुम्हारे यहां गोदामों में सड़ रहे गेहूं को अपने यहां खपाने के लिए ही तो किया है।
तुम्हारे देश की एक दवा कंपनी है, जो बर्ड फ्लू नाम की एक बीमारी की दवा बनाती है। हमने पिछले दिनों न सिर्फ उस दवाई को अपने यहां बेचने की अनुमति दे दी है, बल्कि पहले ही झटके में यह दवा हमारे यहां मोटा कारोबार कर दे, इसलिए हमने अपने यहां बर्ड फ्लू भी फैलवा दिया है। और राजाजी हमें आपको यह बताने में बड़ा गर्व अनुभव हो रहा है कि हमारे यहां का मीडिया भी तुम्हारे काम में पूरा साथ दे रहा है। पीठ पीछे की बात नहीं है, पिछले एक हफ्ते की अखबार उठाकर देख लो, हमने तो थोड़ा सा ही बर्ड फ्लू फैलाया था, मीडिया ने इतना फैलाया कि बस दिल क्या कहते हैं उसे, बाग-बाग हो गया। स्थिति यह है कि लोग तुम्हारे देश की उस कंपनी की दवा पर टूट पड़े हैं। अंदर की एक और बात यह भी है कि अभी तक हमारे यहां किसी एक व्यक्ति तो क्या, मुर्गे को भी बर्ड फ्लू जैसी कोई बीमारी नहीं हुई है।
हे राजाजी! इस बर्ड फ्लू के नाम पर हमने तुम्हारी पसंद का एक और काम किया है। हमने अपने यहां की मुर्गियों को मारने का काम शुरू कर दिया है, अब तुम्हारे यहां की डिब्बा बंद चिकन बेचने वाली कंपनियां भी खूब लाभ कमा सकती हैं। पर जरा आप इस बात का ध्यान जरूर रखना कि जो भी कंपनी डिब्बाबंद चिकन बेचने के लिए आएगी वह अपने डिब्बे के बाहर यह जरूर लिख ले कि यह चिकन बर्ड फ्लू से पूरी तरह से मुक्त है। तुम जानते हो कि इस तरह की बातों में हमारे यहां के लोग खूब विश्वास करते हैं। तुम्हें यह जानकार बड़ी खुशी होगी कि हमारे यहां एक वर्ग ऐसा तैयार हो गया जिसे यहां के नालायक जनवादी किस्म के लोग पश्चिम परस्त कहने लगे हैं। यह वर्ग तुम्हारे यहां की हर चीज को बड़े गर्व के साथ अपनाता है और तुम्हारी कही हर बात उसके लिए ब्रह्मवाक्य होती है। इसीलिए हमारा सुझाव है कि चिकन के डिब्बे के बाहर यह वाक्य लिख लेना, उसके बाद डिब्बे में बंद चिकन की क्वालिटी पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं रह जाएगी।
बाकी तो तुम्हारे लिए हम हमेशा ही हाजिर रहे हैं। पिछले दिनों हमने ईरान के परमाणु कार्यक्रम संबंधी मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पास भेजने के मामले में तुम्हारा साथ दिया था। हालांकि हम जानते हैं कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था, ईरान हमारा पुराना दोस्त है। हम यह भी जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के माध्यम से अब तुम ईरान को तरह-तरह से तंग करोगे। तुम, जैसा तुमने और तुम्हारे उस अमेरिका दोस्त ने जो कुछ इराक के साथ किया, वही तुम ईरान के साथ भी करोगे। मानवाधिकारों का नाम लेकर तुम इराक की तरह ही ईरान में भी मानवाधिकारों का खूब उल्लंघन करोगे, लेकिन फिर भी हमने तुम्हारा साथ दिया, क्योंकि हम सब कुछ देख सकते हैं, लेकिन तुम्हें रूठा हुआ नहीं देख सकते। आखिर हमें पालकी ढोने की पुरानी आदत है और तुम्हारी पालकी ढोकर हम खुद को बेहद गौरवान्वित महसूस करेंगे।

Tuesday, September 21, 2010

बाबा नागार्जुन की याद


करीब २० साल पहले की बात है। तब मैंने पत्रकारिता शुरू की थी। बाबा नागार्जुन किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने देहरादून आये थे। बड़े भाई जनकवि अतुल शर्मा ने बाबा से मुलाकात करवाई थी। उसके बाद पांच दिन तक बाबा का सानिध्य रहा। उन्हें बहुत करीब से जानने का मौका मिला। उस समय बाबा के साथ की मेरी यह तस्वीर भाई अतुल शर्मा ने सहेज कर राखी थी। २० साल बाद फिर से देहरादून लौटा तो भाई अतुल शर्मा से मिला। उनके खजाने में हम दोनों कई घंटे तक जूझते रहे। तब कहीं जाकर यह तस्वीर मिली; पूरी तरह से सुरक्षित। भाई अतुल शर्मा का किन शब्दों में आभार व्यक्त करूँ? उनके इस प्यार और अपनेपन को हमेशा याद रखूँगा.

बाबा नागार्जुन के जन्मशती वर्ष में उनकी इस स्मृति को

आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ। _ त्रिलोचन भट्ट

Thursday, September 16, 2010

मेरे शहर का पार्क (व्यंग्य)


आम शहरों की तरह मेरे शहर में भी एक पार्क है। पार्क तो वैसे कई और भी हैं और सभी की हालत एक जैसी ही है, लेकिन फिलहाल मैं यहां जिस पार्क की बात करने जा रहा हूं वह एक ही है। पार्क, जैसा कि सभी जानते हैं, शहरी जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। सरकारी तौर पर इनके जो उपयोग गिनाए जाते हैं, वे वास्तव में बहुत कम होते हैं, इस तरह से सरकार या म्युनिसिपैलिटी वाले पार्क तो बनवा देते हैं, लेकिन इनके उपयोग की दो-चार मोटी-मोटी बातें गिनाकर उनके महत्व को गौण कर दिया जाता है, जो कि खेदजनक है।
जैसे कि आंकड़ों से पता चलता है, शहरी क्षेत्रों में भी बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है और लगातार बढ़ती बेरोजगारी के चलते इन पार्कों का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। आम बेरोजगार जहां टाइम पास करने के लिए इन पार्कों में आते हैं और दिन भी निरुद्देश्य इन पार्कों में घूम-टहल कर शाम को वापस लौट जाते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ विशिष्ट किस्म के बेरोजगार इन पार्कों में बैठकर रोजगार संबंधी योजनाएं भी बनाते हैं। दिन के समय ये बेरोजगार इस तरह की योजनाओं का मास्टर प्लान तैयार करते हैं और रात के अंधेरे में आसपास के किसी घर का ताला तोड़कर या घर में मौजूद लोगों को डरा-धमकाकर अपनी योजनाओं को अमली जामा पहनाते हैं।
पार्कों का एक अन्य योगदान हमारी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने में भी है। इस सांस्कृतिक विरासत को अलग-अलग युगों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता रहा है, आजकल इसे छेड़छाड़ कहा जाता है। कहते हैं कि पहले जंगल नामक एक स्थान होता था, जहां काफी संख्या में पेड़-पौधे होते थे और इन जंगलों में छेड़छाड़ की क्रिया संपन्न की जाती थी। एक बार एक ऐसे ही जंगल में इंद्र ने अहिल्या को छेड़ा था और श्रीकृष्ण ने तो यमुना किनारे वाले वृन्दावन नामक पूरे जंगल को ही छेड़छाड़ की भूमि बना डाला था। उस समय इसे रास लीला कहा जाता था।
दुष्यंत नामक एक बिगड़ैल शादीशुदा राजकुमार तो इससे भी आगे निकल गया था। उसने एक जंगल में शकुन्तला नामक एक नितांत कुंआरी कन्या को छेड़ा था और बाद में जब उस कन्या ने पुत्ररत्न को जन्म दिया तो दुष्यंत ने उसे पहचानने से भी इंकार कर दिया था। और तो और एक बार एक जंगल में एक महिला ने भी एक पुरुष के साथ छेड़छाड़ की थी और ऐसा करके उसने यह साबित कर दिया था कि यदि जंगल उपलब्ध हों तो अपने देश में महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे नहीं रहेंगी। छेड़छाड़ करने वाली उस महिला का नाम मेनका था और छेड़छाड़ का शिकार हुए पुरुष का नाम विश्वामित्र था। अब चूंकि जंगल नहीं हैं और जो हैं भी उन पर वन माफिया ने कब्जा किया हुआ है, लिहाजा जंगलों के इस दायित्व के निर्वहन की जिम्मेदारी पार्कों ने अपने ऊपर ले ली है। दिन के समय इन पार्कों में छेड़छाड़ की आवश्यक परिणिति के रूप में आत्मिक स्तर पर जो संबंध स्थापित होते हैं, शाम के झुटपुटे में या रात के अंधेरे में उन्हें विशुद्ध शारीरिक स्तर पर ला खड़ा करने का श्रेय भी इन्हीं पार्कों का जाता है।
कई बार ये पार्क बाहरी लोगों को भी शरण देते हैं, यानी जो लोग आत्मा के स्तर पर इन पार्कों से बाहर संबंध स्थापित करते हैं, वे भी यहां आकर अपने संबंधों को शारीरिक आयाम दे सकते हैं। कुछ पार्कों में हनुमान जी का मंदिर भी बनाया जाता है। नौजवान इन मंदिरों में जाकर हनुमान जी से बल और पौरुष प्राप्त करते हैं। बल और पौरुष किसी महिला पर सफलतापूर्वक बलात्कार करने के काम आते हैं।
फिलहाल मैं अपने शहर के पार्क की बात कर रहा था। इसे रोज गार्डन के नाम से पुकारा जाता है। हालांकि यह पुरातत्व विषय के छात्रों के लिए शोध का विषय हो सकता है कि इस पार्क में कभी गुलाब उगते और फूलते थे या नहीं। जहां तक पार्क के रखरखाव का सवाल है, यह जिम्मेदारी अपने शहर के म्यूनिसिपैलिटी के मजबूत कंधों पर है। म्यूनिपैलिटी वालों ने पार्क के रखरखाव में कोई कमी नहीं छोड़ी हुई है। वैसे तो किसी भी कोने से इस पार्क में घुसा जा सकता है, बावजूद इसके पार्क में गेट नाम की एक जगह है। इसी गेट पर पार्क के रखरखाव के मद्देनजर एक सूचना पट लगा दिया गया है, जिस पर कुत्तों के पार्क में प्रवेश पर सख्त पाबंदी संबंधी सूचना लिखी गई है।
जैसा कि सभी जानते हैं, अभी तक हमारे यहां कुत्तों को साक्षर बनाने के लिए कोई अभियान नहीं चलाया जा सका है, हर छोटे-बड़े अभियान के लिए कर्ज देकर हम भारतीयों पर रोज नए अहसान लादने वाला विश्व बैंक भी इस मसले पर रहस्यमय कारणों से मौन साधे बैठा है। नतीजा यह है कि अपने यहां के तमाम आम और खास कुत्ते अभी तक निरक्षर ही हैं। चूंकि वे पूरी तरह से निरक्षर हैं, लिहाजा गेट में लिखी गई उस सूचना को पढ़े बगैर ही अंदर घुस जाते हैं। अंदर घुसने के बाद कुछ तो थोड़ी देर हवा खाकर बाहर निकल आते हैं, लेकिन कुछ स्थाई रूप से सपरिवार इसी पार्क में डेरा जमा लेते हैं।
पार्क में ये कुत्ते अन्य कार्यों के अलावा अपने पेट की सफाई जैसे नितांत निजी कार्य को भी सार्वजनिक रूप से संपन्न करते हैं, अब चूंकि यह आम धारणा बन गई है कि आदमी की जिन्दगी कुत्ते से भी बदतर हो गई है, लिहाजा कुत्तों की देखा-देखी मनुष्य जैसे दिखने वाले कुछ प्राणी भी पार्क के किसी कोने में इस तरह की क्रिया संपन्न कर देते हैं, ताकि उन्हें कम से कम कुत्तों का जितना दर्जा मिल जाए।
जहां तक गाय-भैंसों का सवाल है, चूंकि इनके प्रवेश पर रोक संबंधी कोई सूचना गेट पर नहीं है, लिहाजा ये बिना किसी दिक्कत के पार्क में जा सकते हैं। यूं तो गाय-भैंसे पार्क में उग आई फालतू किस्म की वनस्पतियों को खाने के इरादे से ही वहां जाते हैं, लेकिन अन्दर जाकर, साल में एक-दो बार नियमित रूप से लगाए जाने वाले पौधों को खाना भी इनकी मजबूरी बन जाती है।
जैसा कि सभी जानते हैं, गाय भैंसें बहुत ही खुद्दार किस्म के प्राणी होते हैं। इसलिए वे किसी का अहसान अपने ऊपर नहीं रखते और इस पार्क में जो कुछ खाते हैं, उसे एक विशेष प्रक्रिया के माध्यम से गोबर नामक वस्तु में बदलकर वहीं छोड़ आते हैं। गाय भैंसों के इस तरह के कार्यक्रम का एक विशेष लाभ यह होता है कि पार्क में हर साल, बल्कि साल में दो-तीन बार पौधरोपण करने के लिए बजट हासिल करने की सुविधा मिल जाती है। इस तरह के बजट का एक बड़ा हिस्सा म्यूसिपैलिटी और अन्य संबंधित विभाग के बड़े अफसरों के बीवी-बच्चों को कुपोषण से बचाने के काम आता है और बाकी हिस्से से जो पौधे मंगवाए जाते हैं उनमें से कुछ गाय भैंसों की खाद्य समस्या के मद्देनजर पार्क में लगा दिए जाते हैं और बाकी शहर के सेठों और साहूकारों को ताजी हवा उपलब्ध करवाने के इरादे से बेच दिए जाते हैं।
अत: सिद्ध हुआ कि पार्क एक बहुत ही उपयोगी वस्तु है।

Wednesday, September 15, 2010

मेरी आत्मकथा (व्यंग्य)


लिखूं या न लिखूं? लेकिन मुझे लगता है कि अब मुझे अपनी आत्मकथा लिख ही लेनी चाहिए। अब इसमें कोई शक-सुबहा नहीं रह गया है कि मैं या तो बड़ा लेखक बन गया हूं, या बनने ही वाला हूं। ऐसा मैं कोई हवा में नहीं कह रहा हूं, बल्कि यदि मैं ऐसा कह रहा हूं और मान रहा हूं तो इसके लिए मेरे पास पर्याप्त सबूत मौजूद हैं।
पिछले दिनों मैंने दो गंभीर किस्म के लेख लिखे, और ये दोनों लेख एक गंभीर प्रवृत्ति के अखबार ने अपने अतिगंभीर किस्म के संपादकीय पेज पर अत्यधिक सम्मानजनक स्थिति में छापे और बाकायदा पारिश्रमिक भी भेजा, जिसकी पावती रसीद अब भी मेरे पास है और आप चाहें तो उसे प्रमाण स्वरूप देख सकते हैं। वैसे कुछ साल पहले एक और लेख एक अखबार में छपा था, ये दीगर बात है कि आज तक उसका पारिश्रमिक नहीं मिल पाया है। इसके अलावा मैं जिस अखबार में काम कर रहा हूं, उसमें कुछ न कुछ लिखता ही रहता हूं, हालांकि यहां मैं वही खिलता हूं, जो लिखने के लिए कहा जाता है, उस लिखे का कोई खास मकसद भी नहीं होता, फिर भी लिखना तो लिखना होता है और मैं कई सालों से यूं ही लिख रहा हूं, इसलिए यह साबित हो जाता है कि मैं बड़ा लेखक बन गया हूं। इसके अलावा कुछ और ऐसी बातें हैं, जो यह साबित करती हैं कि मेरा दावा गलत नहीं है, जैसे कि तमाम हिन्दी वालों की तरह मैं भी किताबें पढऩे की जरूरत नहीं समझता और मानता हूं कि मैं पैदायशी विद्वान हूं। अपने दौर के कई लेखकों की तरह ही मैं भी हिन्दी के अनेक बड़े लेखकों के नाम जानता हूं। इनमें प्रेमचंद से लेकर मेरी नाम राशि त्रिलोचन शास्त्री तक शामिल हैं। इतना सब होने के बावजूद भला आप मुझे और मैं खुद को बड़ा लेखक क्यों न माने?
अब जब यह बात हो ही गई है, यानी कि मैं बड़ा लेखक बन ही गया हूं तो जरूरी है कि मैं आत्मकथा लिखूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे बाद के लेखकों को मेरी जीवनी के लिए इधर-उधर भटकना पड़े। मैं शरतचंद जैसे लेखकों से कतई सहमत नहीं हूं जिन्होंने देवदास और श्रीकांत जैसे उन व्यक्तियों को तो अमर कर दिया, जो इस सृष्टि में पैदा ही नहीं हुए, लेकिन अपने बारे में कभी कुछ नहीं लिखा। इसी का नतीजा था विष्णु प्रभाकर को उनके बारे में जानकारी एकत्रित करने के लिए दर-दर भटकना पड़ा। भविष्य के किसी विष्णु प्रभाकर को मेरे जैसे आवारा मसीहा की जीवनी लिखने के लिए सारी सामग्री एक ही जगह मिल जाए, इसलिए मैं आत्मकथा लिख रहा हूं। वैसे भी आने वाले दौर के लेखक हाईटेक लेखक होंगे और उनके पास इतनी फुर्सत नहीं होगी कि अपने पूर्ववर्ती किसी लेखक के बारे में जानने के लिए विष्णु प्रभाकर बनें।
आत्मकथा लिखने से पहले आप सुधी पाठकों को मैं यह बताना जरूरी समझता हूं कि मैंने लिखना कब शुरू किया और किसकी प्रेरणा से, ताकि सनद रहे और हिन्दी साहित्य के अध्यापक इसे छात्रों को बताने के लिए एक प्रेरक प्रसंग की रूप में इस्तेमाल कर सकें। मैंने आम लेखकों की तरह लेखन की शुरुआत पद्य नहीं की, बल्कि मैंने शुरुआत ही गद्य से की। अपने स्कूल की लड़कियों के नाम प्रेमपत्र के रूप से रचित वे गद्य रचनाएं दुर्भाग्य से आज उपलब्ध नहीं हैं। इनमें से ज्यादातर साहित्य तो मैंने संबंधित लड़की को दिए बिना खुद ही नष्ट कर दिया और जो लड़कियों को किसी तरह थमाए, उनमें से भी ज्यादातर के आज तक जवाब नहीं मिल पाए और अब मिलने की कोई संभावना भी नहीं है, कारण कि मेरी ही तरह तरह ही वे लड़कियां भी अब 40 के पार पहुंच गई होंगी और कुछे· तो नानी भी बनने वाली होंगी। खैर।
उस प्रेमपत्र साहित्य की हर बार इसी तरह उपेक्षा हुई हो ऐसा भी नहीं है, इनमें से कुछ साहित्य पढ़ा भी गया और उस पर प्रतिक्रियाएं भी भेजी गई। एक लड़की, जो उम्र में मुझसे बड़ी थी और शायद समझदार भी थी या खुद को समझदार मानती थी, उसने लिखा- यह समय पढ़ाई पर ध्यान देने का है, अभी से इस तरह की बातों में पड़कर भविष्य खराब कर रहे हो। बुरा न मानना और समझना कि तुम्हारी बड़ी बहन ने लिखा है। उसके बाद उस लड़की के आसपास फटकने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
एक अन्य लड़की ने बड़ा ही जोरदार जवाब भेजा था। पढ़कर लगा कि वह तो बेचारी जन्म जन्मान्तर से मेरी प्रतीक्षा कर रही है और मैं हूं कि अब जाकर उस विरहणी की सुध ले रहा हूं। वह पत्र हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने के दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकता था, लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि वह पत्र मेरे पिताजी के हाथ लग गया। उस दुर्घटना के चलते उस रचना को नष्ट कर दिया गया। बहरहाल मैं किसी तरह से नष्ट होने से बच गया, शायद हिन्दी साहित्य की सेवा करने के लिए।
उस पत्र की शुरुआत बड़ी ही मार्मिक और साहित्यिक पंक्तियां लिखकर की गई थी, पढ़कर मेरी आंखें नम हो गई थीं। लिखा था - मेज में घड़ी रखी, समय बताती चार, पत्र पढऩे से पहले तुम्हें मेरा नमस्कार। पत्र आगे पढऩे से पहले मैं देर तक उस सिचुएशन की कल्पना करता रहा था। मेज का आकार-प्रकार, घड़ी का मॉडल, कमरे की स्थिति, सभी कुछ आज भी मेरी कल्पना में है, लेकिन एक बात जो आज भी तय नहीं कर पाता वह यह कि उस समय चार शाम के बज रहे होंगे, या सुबह के? पत्र की अंतिम पंक्तियां तो और भी दिल फाड़ देने वाली थीं - चप्पल में चप्पल, चप्पल में बाटा, औरों को नमस्ते, तुमको टाटा।
बहरहाल। इस दुर्घटना के बाद काफी समय तक मेरी साहित्य साधना बाधित रही। हिन्दी साहित्य जगत को इससे कितना नुकसान हुआ, यह बताना मुश्किल है और उसकी भरपाई कर पाना भी असंभव है। स्कूल के बाद कॉलेज पहुंचा तो मेरे अंदर का साहित्यकार फिर जोर मारने लगा। अब पहले जैसी दुर्घटना का खतरा काफी कम हो गया था, क्योंकि कॉलेज घर से दूर था और मुझे वहीं एक किराए का कमरा लेकर दे दिया गया था। वहां रहकर मैं पढ़ाई से ज्यादा साहित्यकर्म में ही जुटा रहता था। वैसे भी हिन्दी में बड़ा लेखक बनने के लिए पढऩे की ज्यादा जरूरत नहीं होती, बस लिखते चले जाना चाहिए। साहित्य सेवा के इस दूसरे दौर में भी मैंने कई लड़कियों को प्रेमपत्र लिखे। कुछ ने जवाब दिया, कुछ ने नाराजगी जताई, कुछ ने एकांत में खरी-खोटी सुनाई और कुछ इससे भी आगे बढ़ीं। वैसे यह बात पूरी तरह से बेबुनियाद और झूठी है कि प्रेमपत्र दिए जाने से नाराज होकर एक लड़की ने मुझे चांटा मारा था। दरअसल यह कहानी उन लोगों ने गढ़ी थी, जो लड़कियों के साथ मेरी नजदीकियों से चिढ़ते थे और मुझसे ईष्र्या करने लगे थे। ऐसे लोगों के बारे में मैं अपने मुख से भला क्या कहूं? परसाई जी कह चुके हैं कि राधा-कृष्ण की रासलीला के प्रसंग पर भक्ति विभोर हो जाने वाले लोग आदमी के मामले में बड़े कंजूस होते हैं।
ऐसा नहीं है कि हिन्दी का इतना बड़ा लेखक बन जाने के सफर में मैंने कविता लिखी ही नहीं, मैंने अपनी एक प्रेमिका के नख-शिख का वर्णन करते हुए एक बार एक लंबी कविता लिखी थी। कविता मैंने उसी को भेंट की थी। मुझे पूरा यकीन है कि वह पांडुलिपि अब तक नष्ट हो चुकी होगी। हो सकता है कि मेरी उस प्रेमिका ने कुछ समय तक उसे अपने पास रखा होगा और बाद में अपनी सहेलियों को दिखाकर उसे फाड़ दिया हो। यह भी हो सकता है कि जरूरत के समय उसने कविता का लिंग परिवर्तन कर और उसमें जरूरी संशोधन कर अपने नए प्रेमी को भेंट कर दी हो और उस नए प्रेमी ने एक बार फिर लिंग परिवर्तन कर उसे अपनी नई प्रेमिका को दे दिया हो। जाहिर ही इतने परिवर्तनों से गुजरने के बाद कविता की मौलिकता में काफी अंतर आ चुका होगा। बाद में उस कविता का क्या हुआ होगा, कोई नहीं जानता।
साहित्य सृजन से जुड़ी एक मजेदार कहानी भी मेरे साथ घटित हुई। पाठकों और भावी लेखकों के हित में मैं यहां उस कहानी का जिक्र करना जरूरी समझता हूं, ताकि वक्त-जरूरत काम आ सके। उस समय मैं कॉलेज का एक साल पूरा कर दूसरे साल में प्रवेश कर चुका था। नए छात्र भर्ती हो चुके थे। एक तय दिन नए छात्रों के परिचय का समारोह होना था। यूं यह था तो परिचय समारोह ही, लेकिन थोड़ा सा रैगिंग जैसा भी किसी-किसी छात्र के साथ हो जाता था।
कॉलेज परिसर के एक हॉल में सभी सीनियर छात्र-छात्राएं, जिनमें मैं भी शामिल था, वृत्ताकार बैठे हुए थे। नए छात्र-छात्राओं को एक-एक करके अंदर आना था और सभी के पास जाकर अपना परिचय देना था। सीनियर छात्र उनसे कुछ पूछ-पाछ लेते थे और मर्जी हुई तो नहीं भी पूछते थे।
जैसा कि होता है, नए छात्रों में कुछ उदंड और घमंडी किस्म के भी थे और सीनियर छात्र इस समारोह की कई दिनों से प्रतीक्षा कर रहे थे ताकि उन्हें सबक सिखाया जा सके। समारोह स्थल से इतर उन्हें कुछ कहा नहीं जा सकता था। लेकिन मैं किसी और वजह से इस समारोह की प्रतीक्षा कर रहा था, मेरे लिए यह एक ऐसा मौका था जब अपनी साहित्य साधना की धाक कॉलेज के छात्रों और खासकर छात्राओं पर जमाई जा सकती थी। वैसे नाचीज के साहित्यकार होने की छिटपुट खबरें कॉलेज में तब तक फैल चुकी थीं।
हालांकि मैंने साहित्य सृजन के नाम पर तब तक केवल प्रेमपत्र ही लिखे थे और इस समारोह में सार्वजनिक रूप से उनका पाठ करना संभव नहीं था, लिहाजा मैंने कुछ शेर-ओ-शायरी की किताबें खरीदीं, उनमें से अच्छे शेर चुनकर कागज के पुर्जों पर उतारे, पत्रिकाओं में छपी सुन्दर लड़कियों की तस्वीरें काटकर साथ में चिपकाईं और उन्हें अलग-अलग लिफाफों में डालकर परिचय समारोह में जा पहुंचा।
समारोह में बाकी छात्र-छात्राएं तो नए छात्रों से पूछा-पाछी में जुट गए, लेकिन मैं नए छात्रों का इस्तेमाल लिफाफों को लड़कियों तक पहुंचाने के काम में करने लगा। मेरे पास जो भी छात्र या छात्रा अपना परिचय देने आते, मैं उसे एक लिफाफा थमा कर सामने बैठी किसी लड़की को देने के लिए कह देता। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य यूं तो ठीक ही निपट गया, लेकिन एक लड़की ने समस्या खड़ी कर दी। उसके पास जो शेर पहुंचा, वह कुछ यूं था- निगाहों में निगाहें न डाला करो इस कदर, वरना ज्यादा दिन न टिक पाएगा ये मंजर, अर्से से रखा है ये दिल तुम्हारे लिए, ले लेना कुछ और जवां होकर।
वह लड़की कई दिन तक मेरे पीछे पड़ी रही कि आखिर उसने कब मेरी निगाहों में निगाहें डाली थीं, उसका आग्रह यह भी था कि वह अब जवां हो चुकी है और मैं उस दिल को, जो कि मैंने अर्से से उसके लिए रखा हुआ है, उसे दे दूं। मैं उसके इस आग्रह को मान भी लेता, क्योंकि इतने सालों तक प्रेमपत्र साहित्य लेखन के अलावा कुछ नहीं कर पाया था, और मेरा भी मन था कि अब मैं दिल उसे दे ही डालूं, लेकिन दिल लेने का जो तरीका उसने बताया वह काफी हिंसात्मक था, उसका कहना था कि मैं अपना दिल काटकर उसे दे दूं। चूंकि मैं हिंसा का विरोधी हूं लिहाजा मैंने ऐसा नहीं किया, लेकिन वह लड़की किस दिन वास्तव में मेरा दिल अपने साथ ले गई, मुझे पता ही नहीं चला। वह तो शुक्र है खुदा का कि ऐन वक्त पर, जब, जैसा कि उस समय होता था, यानी कि प्रेम की परिणति विवाह में होती थी और उस समय प्रेम को तभी सफल माना जाता था, जब शादी हो जाए, इस सामाजिक धारणा के चलते हम लोग, यानी कि मैं और वह लड़की शादी करने की सोच रहे थे, बल्कि करने ही जा रहे थे तो, जैसा कि मैने कहा, शुक्र है खुदा का, उसके बाप ने अड़ंगा डाल दिया और वह जिन्दगी भर मुफलिसी में जीने के अभिशाप से बच गई। मेरा विश्वास है कि वह अब जहां भी होगी, खूब ऐशोआराम से होगी। कम से कम मेरी तरह मुफलिसी में तो कतई नहीं होगी।
मैं आत्मकथा की बात कर रहा था। तो किसी बड़े लेखक की जीवनी या आत्मकथा में जो तत्व आवश्यक हैं, वे सब मेरे पास भी हैं, जैसे कि वह गरीब परिवार में पैदा होता है, बचपन अभावों में गुजरता है, लेकिन पढ़ाई-लिखाई में तेज होता है। इसके अलावा वह कुछ-कुछ उदंड भी होता है और अध्यापक उसकी उदंडता को सिर्फ इसलिए नजरअंदाज कर जाते हैं कि वह पढऩे में तेज होता है। बाजे-बाजे समय में वह क्लास में जाने के बजाए आसपास की झाडिय़ों या खेतों में जाकर छिप जाता है और बीड़ी पीना शुरू कर देता है, कई बार लड़कियों को छेडऩे के ‘झूठे’ आरोप में मार भी खाता है। इस तरह की बातें सभी लेखकों में एक जैसी होती हैं, लिहाजा मैं यहां उन बातों को दोहराना उचित नहीं समझता, ये सब बातें सुधी पाठक किसी दूसरे लेखक की आत्मकथा में भी पढ़ सकते हैं, लिहाजा मैं अपनी आत्मकथा को यहीं विराम दे रहा हूं। लेकिन पाठकों से यह आग्रह जरूर कर रहा हूं कि आप मेरी इस आत्मकथा को पढऩे के बाद मुझे बड़ा लेखक जरूर स्वीकार कर लें। और हिन्दी साहित्य के अध्यापकों से विशेष अनुरोध यह करना चाहूंगा कि प्रयास करें कि मेरी आत्मकथा सिलेबस में लग जाए, इससे एक बड़ा फायदा यह होगा कि अन्य लेखकों की जीवनी की तरह मेरी जीवनी रटते समय विद्यार्थियों को सन् या संवत नहीं रटने पड़ेंगे, भावी विद्यार्थियों इस झंझट से बचाने के लिए ही मैंने अपनी जीवनी में तिथियों का इस्तेमाल नहीं किया है। बाकी समय मिला तो आगे भी कुछ लिखने का प्रयास करूंगा, वरना आप इसी आत्मकथा को मेरी एकमात्र और श्रेष्ठ रचना बताकर विद्यार्थियों को बता सकते हैं कि बहुत लिखने से कोई बड़ा लेखक नहीं बनता, थोड़ा और सारगर्भित लिखकर बड़े लेखकों की श्रेणी में शामिल हुआ जा सकता है, जैसे कि त्रिलोचन भट्ट की यह आत्मकथा।

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बसुकेदार रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड, India
रुद्रप्रयाग जिला के बसुकेदार गाँव में श्री जनानन्द भट्ट और श्रीमती शांता देवी के घर पैदा हुआ। पला-बढ़ा; पढ़ा-लिखा और २४साल के अध्धयन व् अनुभव को लेकर दिल्ली आ गया। और दिल्ली से फरीदाबाद। पिछले १६ साल से इसी शहर में हूँ। यानी की जवानी का सबसे बेशकीमती समय इस शहर को समर्पित कर दिया, लेकिन ख़ुद पत्थर के इस शहर से मुझे कुछ नही मिला.