Monday, January 31, 2011

46 का मैं


आज यानी एक फरवरी को मैं 46 साल का हो गया। आपको विश्वास नहीं हो पा रहा है ना, मुझे भी नहीं हो रहा है। दरअसल पिछले पांच साल से मैं हर एक फरवरी को 40 साल का हो रहा था, लेकिन इस बार इस ऑरकुट और फेसबुक ने सारा गुड़ गोबर कर दिया, वरना विश्वास मानिये कि इस बार भी मैं 40 साल का ही होता और शायद आने वाले चार-पांच साल तक भी 40 का ही रहता। पर क्या है कि वो इन दोनों साइटों पर मेरे तमाम दोस्तों और उसके दोस्तों के दोस्तों को मेरी असली उम्र पता चल गयी, सो मजबूरी में मुझे में 40 से पूरे छह साल की छलांग लगाकर 46वें में पहुंचना पड़ा।
वैसे आपकी जानकारी के लिए एक बात और बता दूं। इन साइटों पर अब भी मेरी उम्र 44 बताई जा रही है। असल में चालाकी से मैंने इन साइटों में अपना फर्जी यानी सर्टिफिकेट वाला जन्म वर्ष डाल दिया है। हां, तिथि यानी एक फरवरी असली वाली ही डाली है। अत: साइटों पर देखकर जो लोग मेरी उम्र 44 मान रहे हैं, वे असली उम्र नोट कर लें, और जो लोग मेरे कहे अनुसार अभी तक इस भ्रम में थे कि मैं 40 का हूं वे भी अपनी जानकारी दुरुस्त कर दें। यहां मैं आपको यह भी बताना चाहता हूं कि देखकर कोई मुझे 46 का नहीं बता सकता। मैंने शीशे में आज से खुद को काफी देर तक देखा तो 46 से काफी का कम का लगता हूं। दिल को बहलाने के लिए गालिब ये ख्याल अच्छा है, क्यों?
एक बात मेरी समझ में नहीं आई, जाहिर है कि मेरी समझ में ही नहीं आई तो आपकी समझ में क्या आएगी, कि हम अपनी उम्र छिपाते क्यों हैं। मैं तो लोगों से ही क्या खुद से भी लगातार अपनी उम्र छिपाता रहा हूं। सिर के बाल काले करके रखता हूं, हां, दाढ़ी को जरूर मैंने सफेद दिखने की छूट दे दी है, ताकि लोगों की हंसी का पात्र न बन जाऊं। वैसे उम्र इतनी हो जाने के बावजूद मन से मैं इतना अधेड़ नहीं हुआ हूं। इस लिहाज से आप मुझे दुर्जन भी कह सकते हैं, दरअसल एक जगह मैंने पढ़ा था कि सज्जन पुरुष शरीर से जवान होने के बावजूद मन से बूढ़े होते हैं और दुर्जन शरीर से बूढ़े हो जाने के बाद भी मन से जवान रहते हैं। इस कहावत के अनुसार मैं खुद को दुर्जन मान लेने के लिए तैयार हूं, लेकिन बूढ़ा बनने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं हूं।
सवाल फिर वही कि हम अपनी उम्र छिपाते क्यों हैं? हो सकता है उम्र छिपाने के पीछे सबके अपने-अपने कारण होते हों, लेकिन जहां तक मैं सोचता हूं मैं इसलिए अपनी उम्र छिपाता रहा कि जब भी मैंने अपनी उम्र और उपलब्धियों के बारे में सोचा तो मुझे निराशा हुई। मैंने इस उम्र तक पहुंच जाने के बावजूद कुछ नहीं किया, सिवाय किसी तरह धक्के मारकर अपने बच्चों को पालने के। अब तक मुझे बहुत कुछ लिख लेना चाहिए था, लेकिन नहीं लिख पाया। अखबार के नौकरी के साथ दरअसल रचनात्मक लेखन संभव भी नहीं है। अखबारों में मेरे स्तर के कर्मचारियों का बेदर्दी से दोहन किया जाता है। दरअसल अखबारों में नालायकों की भरमार है, इस तरह के लोग अधिकारियों की चापलूसी करके अपनी नौकरी बरकरार रखते हैं, ऐसे में मेरे जैसे लोग जिनको न अधिकारियों के चरण छूने की आदत होती है और न ही उनके सामने बैठकर चापलूसी करने की, उनके पास अपने बच्चों का पेट पालने के लिए एक ही चारा रह जाता है, कमरतोड़ मेहनत करो और अधिकारियों का डांट खाओ। दरअसल चापलूस नालायकों के हिस्से का काम भी मेरे जैसों को करना ही पड़ता है, जिनका कोई माई-बाप नहीं होता और उनके हिस्से की डांट भी खानी पड़ती है। चापलूस चौड़े होकर अधिकारी के सामने वाली चैयर पर बैठकर कॉफी गटक रहे होते हैं और मेरे जैसा खड़ा होकर डांट खा रहा होता है। कमर टूटने की हद तक की मेहनत और अधिकारी की हर रोज की डांट-फटकार के बाद आखिर रचनात्मक लेखन के लिए गुंजाइश ही कहां रह जाती है?
लेखन न सही, इतना पैसा ही मैं कमा चुका होता कि आगे की जिन्दगी कुछ आराम से कट जाती और बच्चों को पढ़ाने की चिन्ता से मुक्ति मिल जाती, लेकिन ऐसा भी मैं नहीं कर पाया। एक छत की छांव तक संभव नहीं हो पाई। किराये के कमरे में गुजारा करना और किसी तरह खींचतान कर घर का और बच्चों की पढ़ाई का खर्च चलाना, यही होता रहा। इन परिस्थितियों मैं अक्सर खुद से ही अपनी उम्र छिपाता फिरता रहा, यह सोचकर कि अगले दो तीन साल में इतना पैसा कमा लूं तो कि उम्र और उपलब्धियों की बीच की खाई खत्म हो जाए, लेकिन आज तक न इतना पैसा कमा पाया और न ही इतना लेखन कर पाया, लिहाजा बिना कोई उपलब्धि हासिल किये ही मुझे आज इस 46वें साल में अपनी असली उम्र में आना पड़ गया, क्योंकि अब मुझे नहीं लगता कि उम्र और उन्नति की इस खाई को कभी पाट पाऊंगा। उम्र लगातार बढ़ती जा रही है, उपलब्धियों के नाम पर आज भी सिर्फ पेट भराई तक ही सीमित रह गया हूं। ऐसे में अब उम्र छिपाने का कोई मतलब नहीं रह गया है।
अब आप सभी लोगों से उम्मीद करूंगा कि मुझे मेरे 46 वें जन्म दिन पर, और हां आज की मेरी शादी की 22वीं सालगिरह भी है, इसलिए मेरी शादी की 22वीं सालगिरह पर मुझे शुभकामनाएं जरूर दें। वैसे आप न भी तो कोई बात नहीं, मेरी ओर से जो देगा उसको भी धन्यवाद और जो नहीं देगा उसको भी धन्यवाद।

Monday, January 10, 2011

स्कूल ने ले ली दो मासूमों की जान

देहरादून के एक स्कूल के दो बच्चों आठवीं कक्षा की पारुल और 11वीं के विक्की ने रेल से कटकर आत्महत्या कर ली। इसे पुलिस प्रेम प्रसंग को लेकर आत्महत्या का मामला मान रही है। समाचार पत्रों के पाठक भी शायद यही मान रहे हों, लेकिन क्या वास्तव में दोनों को प्रेम के बारे में इतनी समझ होगी कि साथ जीने और साथ मरने का इरादा लेकर वे ट्रेन के सामने कूद गये? शायद नहीं। इस उम्र के बच्चों में विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण हो सकता है, लेकिन एक दूसरे के लिए जान दे देने तक की स्थिति तक वे भावुक नहीं हो सकते।
दरअसल इन दो बच्चों की जान उनके स्कूल ने ले ली। समाचार कहता है कि दोनों के माता-पिता को स्कूल में बुलाया गया था, स्कूल में उनसे क्या कहा गया, यह समाचार में नहीं कहा गया है। दोनों बच्चों को उनके मां-बाप के साथ घर भेज दिया गया। शाम को दोनों बच्चे घर से गायब हो गये और रात को पटरी पर दोनों के क्षत-विक्षत शव मिले। इससे साफ हो जाता है कि दोनों बच्चों ने प्रेम में डूब कर आत्महत्या नहीं की, बल्कि मां-बाप को स्कूल में बुला लिए जाने के कारण पैदा हुए अपराधबोध के चलते ऐसा भयानक कदम उठाया।
आखिर उन दो मासूमों ने ऐसा क्या अपराध किया कि उनके माता-पिता को स्कूल में बुला लिया गया। इतना ही किया होगा कि वे स्कूल में एक-दूसरे से बात कर लेते होंगे, इससे ज्यादा वे बच्चे क्या करते होंगे। साफ है कि स्कूल के शिक्षक और कर्ताधर्ताओं को एक लड़के का एक लड़की के साथ बात करना अच्छा नहीं लगा, यानी कि वे आज भी मध्यकालीन युग में जी रहे हैं, इसीलिए तो बच्चों के मां-बाप को स्कूल में बुला लिया गया यह हिदायत देने के लिए कि वे अपने बच्चों पर नियंत्रण रखें। मासूम बच्चों को लगा कि उन्होंने एक दूसरे से बात करके महान पाप किया है और जाकर जान दे दी।
आठवीं में पढऩे वाली बच्ची को प्रेम की कितनी समझ हो सकती है, इसे समझने के लिए मैं खुद अपनी बेटी का उदाहरण देना चाहूंगा। मेरी बेटी सातवीं में पढ़ती है, यानी कि पारुल से करीब एक साल छोटी। पिछले दिनों मैं अपनी बेटी के दांतों का इलाज करवाने उसे अस्पताल ले गया। अस्पताल में एक होर्डिंग देखकर मेरी बेटी ने सवाल किया, पापा कंडोम क्या होता है? मैंने सवाल को टाल दिया, लेकिन जब बार-बार मेरी बेटी यही सवाल पूछने लगी तो मैंने कहा, बड़ी होकर तुम्हारी समझ में आ जाएगा। सातवीं में पढऩे वाली बच्ची को जब कंडोम के बारे में जानकारी नहीं तो भला आठवीं की छात्रा बेशक वह मेरी बेटी की तुलना भी बहुत ज्यादा खुले वातावरण में क्यों न रहती हो, यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह प्रेम को इतनी गहराई तक समझने लगे कि प्रेमी के साथ आत्महत्या कर ले।
पारुल और विक्की की आत्महत्या पूरे समाज के लिए एक बड़ा संदेश है। यह अभिभावकों और स्कूलों के लिए मंथन का मौका देती है, क्या वास्तव में स्कूलों को बच्चों के प्रति इतना संवेदनहीन होना चाहिए कि दो बच्चे आपसे में बात कर रहे हों तो उसे इतना बड़ा हौव्वा बनाएं कि मां-बाप को बुलाकर बच्चों को अपराधी साबित करें और मां-बाप को भी ऐसे मामलों में बेहद संवेदनशीलता से काम करना होगा।
आज के दौर में जबकि समाजवादी विचारक को-एजुकेशन की जरूरत पर बल दे रहे हैं, ताकि लड़के और लड़कियां एक-दूसरे को जान सकें, ऐसी स्थिति में एक स्कूल द्वारा दो बच्चों के आपस में बातचीत करने के मामले को इस हद तक पहुंचाना कि वे गाड़ी के आगे कूदने के लिए विवश हो जाएं आखिर किस मानसिकता का सबूत है। दो मासूमों की जिन्दगी छीनने के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। छोटी सी उम्र में अपनी जीवन लीला को इतनी वीभत्स तरीके से समाप्त करने वाले दोनों मासूमों को मेरी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि। और बाकी बच्चों के लिए यह संदेश कि जीवन अनमोल है, इसे इस तरह से नहीं खोया करते। जीवन जीने के लिए है। प्रेम और दोस्ती अपराध की श्रेणी में नहीं आते। ये ईश्वर की मनुष्य को दी हुई एक स्वर्गिक अनुभूति है। इसे अनुभव करने के लिए जीना होगा। हमें जिन्दगी इसलिए नहीं मिली है कि हम अपने हाथों उसे समाप्त कर दें। जीवन है तो प्रेम है। जो लोग प्रेम का विरोध करते हैं, वे दरअसल या तो वैचारिक और भावनात्मक रूप से शून्य होते हैं या फिर कुंठित होते हैं।

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बसुकेदार रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड, India
रुद्रप्रयाग जिला के बसुकेदार गाँव में श्री जनानन्द भट्ट और श्रीमती शांता देवी के घर पैदा हुआ। पला-बढ़ा; पढ़ा-लिखा और २४साल के अध्धयन व् अनुभव को लेकर दिल्ली आ गया। और दिल्ली से फरीदाबाद। पिछले १६ साल से इसी शहर में हूँ। यानी की जवानी का सबसे बेशकीमती समय इस शहर को समर्पित कर दिया, लेकिन ख़ुद पत्थर के इस शहर से मुझे कुछ नही मिला.