Friday, December 28, 2018

फेसबुक मित्रों से विनम्र निवेदन

Wednesday, December 26, 2018

ab

मैं पिछले लगभग 8 वर्षों से फेसबुक पर हूं कुछ सालों तक यह सिलसिला बहुत धीमा रहा लेकिन बाद में जैसे-जैसे लोग जुड़ते करें गए वैसे-वैसे यह सिलसिला भी तेज होता चला गया. आज फेसबुक की आभासी दुनिया में मेरे 4000 से अधिक मित्र हैं और मुझे यह कहते हुए फक्र हो रहा है कि मुझे फेसबुक के माध्यम से दर्जनों मित्र मिले जो भौतिक रूप से भी अब जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं.  
 इन कुछ वर्षों में मेरी कई पोस्ट को लोगों ने सराहना की तो कई लोगों ने मुझे पुकारा और फटकारा भी है यह सिलसिला चलता रहेगा मित्रों से मेरा निवेदन है कि अब मैं फेसबुक पर सीधे पोस्ट करने के बजाय अपने इस ब्लॉग पर पोस्ट लिखूंगा और ब्लॉग का लिंक फ़ेसबुक पर शेयर करूंगा उम्मीद है आप सहयोग बनाए रखेंगे।
 धन्यवाद

Tuesday, September 1, 2015

अब जल्दी ही फिर से लिखना शुरू कर रहा हूँ - इस बीच कई बार दुबारा लिखने का प्रयास किया, लेकिन रोज़ी रोटी के चककर में सब गड़बड़ हो रहा है. 

Saturday, March 7, 2015

सोच रहा हूँ फिर से लिखना कर दू

Wednesday, July 13, 2011

काया और माया का फेर


पिछले दिनों देश में दो बड़ी घटनाएं हुईं, एक तो भ्रष्टाचार को लेकर बड़ा हो-हल्ला हुआ। अन्ना हजारे जंतर-मंतर पर बैठ गये। उनके समर्थन में वहां बहुत सारे लोग पहुंचे, जो नहीं पहुंचे वे इंटरनेट पर एकजुट हुए। उनके सामने केंद्र की सरकार झुक गयी और बाद में पता चला कि अकड़ गई। उधर बाबा रामदेव कहां चुप बैठने वाले थे, लिहाजा वे रामलीला मैदान में जाकर बैठ गये, पर पुलिस से उनका बैठना देखा गया, आधी रात को लठ चला दिये। बेचारे बाबा किसी महिला के कपड़े पहनकर भागने लगे, पर पकड़े गये। दूसरे दिन पुलिस उन्हें हरिद्वार के पास जौलीग्रांट हवाई अड्डे पर छोड़ गई। बहरहाल इस पर ज्यादा लिखने का कोई तुक नहीं है, सभी टीवी पर देख चुके हैं और अखबारों में पढ़ चुके हैं। मेरा विषय यहां दूसरी घटना है, जिसके बारे में लिखने जा रहा हूं।
यह घटना पता नहीं लोगों को बड़ी लगी या नहीं पर मुझे लगी और इसीलिए इस घटना पर मैं की-बोर्ड चलाने बैठा हूं। हुआ यह कि एक बड़े अखबार में एक बड़े लेखक का एक बड़ा लेख छपा। अखबार को मैं बड़ा इसलिए कह रहा हूं कि वह अखबार दावा करता है कि उसे देश के सबसे ज्यादा लोग पढ़ते हैं। लेखक को बड़ा इसलिए लिख रहा हूं कि लेख के आखिर में पतले अक्षरों में लिखा है कि लेखक उसी अखबार की एक मैग्जीन की एक भाषा विशेष के संस्करण के संपादक हैं और लेख को बड़ा इसलिए कह रहा हूं कि कोई भी लेख यदि किसी अखबार के संपादकीय पेज पर जगह पा ले तो वह अपने आप ही बड़ा लेख हो जाता है।
मुझे लग रहा है प्रस्तावना कुछ ज्यादा ही खिंच गई है, एकता कपूर छाप सीरियलों की तरह। चलिए मुख्य विषय की ओर लौटते हैं। उस लेख का शीर्षक है ‘‘काया और माया दिखाने की चीज नहीं होते’’। लेख में इस बात पर सख्त अफसोस जताया गया है कि आजकल की महिलाएं मॉडर्न कपड़े पहन रही हैं। मुझे परम संतोष हुआ कि लेखक महोदय लेखक होने के साथ ही महिलाओं के कपड़ों को निहारने का काम भी काफी जिम्मेदारी के साथ निभा रहे हैं और लगे हाथ कपड़ा पुलिस का रोल भी निभा रहे हैं। कपड़ा पुलिस मैं उन लोगों को कहता हूं, जो तू कौन मैं खामख्वाह की तर्ज पर लोगों, और खासकर महिलाओं के कपड़ों को निहारने का काम करते हैं। कपड़ा पुलिस किस्म के लोग इस बात से बेहद चिन्तित रहते हैं मॉडर्न कपड़ों से महिलाओं के शरीर भरे-पूरे लगते हैं और इससे हमारी संस्कृति का सर्वनाश हो गया है। गोया संस्कृति ऐसी टुच्ची चीज हो गई कि एक महिला के कपड़े उसे रसातल में पहुंचाने के लिए काफी हों।
लेख को पढ़कर लगा कि कपड़ा पुलिस लेखक महोदय को जीव विज्ञान का भी अच्छा-खास ज्ञान है। लेख में जीव विज्ञान का हवाला देकर बताया गया था कि महिलाओं को मॉडर्न कपड़े बिल्कुल भी नहीं पहनने चाहिए, क्योंकि उनके ऐसे कपड़े देखकर पुरुषों के मन में क्या-क्या विचार उठते हैं, महिलाएं उसे नहीं समझ सकतीं। लेखक के अनुसार पुरुष के शरीर में कुछ खास तरह के एंजाइम होते हैं जो किसी भी मॉडर्न किस्म की महिला को देखकर सक्रिय जाते हैं। हालांकि किस जीव वैज्ञानिक ने पुरुष के शरीर के उस खास एंजाइम की खोज की उसका नाम लेखक ने नहीं लिखा, कहीं खुद ही न खोज लिया हो अपने ही शरीर में।
जहां तक एंजाइम की बात है तो स्त्रियों और पुरुषों के शरीर में कुछ खास एंजाइम तो होते ही हैं, जो दोनों को एक दूसरे की ओर आकर्षित करते हैं, उनमें प्रेम संबंध स्थापित होते हैं, जो सृष्टि को आगे बढ़ाने में मददगार होते हैं। फिर बीच में ये मॉडर्न कपड़े कहां से आ टपके? वैसे भी लेखक महोदय को मैं एक बात तो यह जरूर कहना चाहूंगा कि खाना, पहनना और प्रेम करना किसी भी व्यक्ति कें नितांत निजी मामले होते हैं, कोई भी व्यक्ति, चाहे वह बड़ा लेखक ही क्यों न हो, किसी के इन निजी मामलों में ताकझांक कैसे कर सकता है और यदि कर रहा है तो वह किसी के व्यक्तिगत अधिकारों का हनन कर रहा है।
जहां तक मॉडर्न कपड़ों वाली महिलाओं को देखकर पुरुष में लेखक वाले उन खास एंजाइम के सक्रिय हो जाने का सवाल है तो मैं यह महत्वपूर्ण जानकारी लेखक महोदय और उनके जैसे विचार रखने वाले लोगों को जरूर दूंगा कि यदि सच में ऐसा होता तो भीख मांगने वाली महिलाओं, मानसिक संतुलन खो बैठी मैली-कुचैली महिलाओं, फुल ड्रेस में रहने वाली सरकारी स्कूलों की बच्चियों और गांवों में रहने वाली घूंघटवाली महिलाओं के साथ बलात्कार नहीं होते। इस देश में यह सब हो रहा है। यदि एंजाइम केवल मॉडर्न महिलाओं को देखकर ही सक्रिय होते हैं तो पूछा जा सकता है कि बेचारी सी इन महिलाओं के साथ यह सब क्यों हो रहा है?
आपको नहीं लगता कि महिलाओं को गलत बताने के लिए पुरुष वर्ग ने एक नया हथियार पा लिया है? मैं मानता हूं कि मॉडर्न या अच्छे कपड़े पहनकर महिलाएं ज्यादा सुन्दर दिखने लगती हैं, लेकिन क्या सुन्दर दिखना पाप है। लेखक महोदय और उन जैसे तमाम लोग आखिर सुन्दरता को सुन्दरता की तरह क्यों नहीं लेते, क्यों वे हर जगह अपनी दिमागी गंदगी को उड़ेल देते हैं? लेकिन पुरुष हमेशा इस प्रयास में रहा है कि किसी न किसी तरह से खुद को महिला से ङ्घोष्ठï साबित किया जाय। किसी महिला से बलात्कार करने को वह अपनी मर्दानगी मानता है, लेकिन जब बलात्कार के दोषियों को दंड देने के लिए सख्त कानून बने तो महिला पर बलात्कार करने को पुरुष का पुरुषोचित अधिकार मानने वाले लोग बलात्कार में महिला की गलती निकालने के प्रयास में जुट गए हैं। जीव विज्ञान के (कु)तर्क देकर यह साबित करने का प्रयास किया जा रहा है कि देखो जी यदि महिला मॉडर्न कपड़े पहनेगी तो जीव विज्ञान के नियम के अनुसार उसके साथ बलात्कार तो होगा ही होगा। कानून बेशक बलात्कारी को सजा दे दे, लेकिन कम से कम समाज की नजरों में तो इस तरह के प्रयास करके उसे दूध का धुला और जीव विज्ञान के नियमों तथा महिलाओं के फैशन का मारा साबित किया ही जा सकता है, यानी बलात्कार को कानूनी न सही, सामाजिक स्वीकृति तो मिल ही जाए।
एक और बात जो इस लेख में गौर करने लायक है, इसे पढ़कर तो आपको मानना ही पड़ेगा कि लेखक महोदय का इरादा क्या है। लेख में हर्षद मेहता का उदाहरण दिया गया है, कहा गया है कि कई लोग दो नंबर का पैसा कमा रहे हैं, लेकिन अपनी माया को वे दिखा नहीं रहे हैं और मौज कर रहे हैं, लेकिन हर्षद ने ऐसा नहीं किया, उसने अपनी माया को दिखाया और बर्बाद हो गया। तो क्या लेखक महोदय महिलाओं से यह कहना चाहते हैं कि वे भीतर से तो जो कुछ भी करें, यानी हर्षद मेहता की तरह खूब दो नंबरी काम करें, लेकिन बाहर से लज्जाशीला और सौम्यता की मूर्ति नजर आएं और केवल देखने में ही आदर्श भारतीय नारी की छवि पेश करें, हर्षद मेहता के अलावा उन लोगों की तरह जो खूब कमा रहे हैं, लेकिन बाहर से पूरी तरह से ईमानदार नजर आ रहे हैं, यानी भेड़ की खाल पहने भेडि़ए। कम से कम महिलाओं को इस तरह की सीख न दें लेखक महोदय। वे जैसी हैं वैसी ही अच्छी हैं, साधारण कपड़े पहनें या फिर फैशनलेबल मॉडर्न कपड़े, हमें तो वे हर हाल में अच्छी लगती हैं। आप हो सके तो अपने दिमाग की गंदगी को निकाल बाहर करें और ऐसा न कर सको तो महिलाओं को भेड़ की खाल पहनकर अंदर से भेडिय़ा बनने की सलाह तो न ही दें।

Friday, April 29, 2011

अमरूद में आओ प्रभो


हे लोगों को छप्पर फाड़कर देने वाले! हे अदनान सामी को लिफ्ट करवाकर बंगला मोटर कार दिलाने वाले! हे मेरे साथ काम करने वालों को पता नहीं कहां से खूब सारा पैसा दिलाने वाले! आखिर इस बार भी तू मुझे धोखा दे गया। मुझे उम्मीद थी कि इस बार तू जरूर मेरे ही घर आएगा, लेकिन तूने ऐसा नहीं किया। इस बार अपने लिए तूने किसी दूसरे शहर के एक भाई का टमाटर चुना। सुना है कि उस टमाटर की चर्चाएं खूब जोर-शोर से हैं। शहर भर के और दूसरे शहरों से भी लोग वहां जाकर भेंट उपहार चढ़ा रहे हैं। वह भाई जिसका वह टमाटर था, ज्यादा नहीं तो थोड़ा बहुत तो अमीर हो गया समझ लो। कुछ नहीं तो थोड़ा-बहुत पुराना कर्जा तो उतार ही लेगा।
दरअसल मैं भी कई दिनों से तेरे आने की प्रतीक्षा कर रहा हूं। आज तक मैं ऐसे कई लोगों को देख चुका हैं, जिसे एक कहावत के अनुसार तूने फर्श से अर्श पर पहुंचा दिया। मेरे ऑफिस में ही देख, वो वाला मेरा सहयोगी, तू अच्छी तरह जानता है क्या है उसकी योग्यता, तनख्वाह भी मेरे से बहुत कम पाता है, पर उसके ठाठ तो देख, उसके पास बाइक है, कार है, घर में एयरकंडीशनर है, कभी बटुआ खोलता है तो पांच-पांच सौ के नोट जीभ बाहर निकाले हांफते नजर आते हैं। और मेरा बटुआ तो देखा है न तूने, उसमें में बीस का नोट जिस दिन हो उस दिन मैं खुद को अमीरों की गिनती में शुमार करने लगाता हूं। इसके अलावा मेरे बटुए में सेलरी अकाउंट का एक एटीएम कार्ड है, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं, क्योंकि अकाउंट के सारे पैसे तो दस से पहले ही खत्म हो जाते हैं।
मैंने सुना था कि तू सबका ध्यान रखता है। आसपास के लोगों को इस तरह अमीर होता देख मुझे पूरा विश्वास था कि तू मेरा भी ध्यान रखेगा। जब से तूने लोगों के घरों में फलों और सब्जियों में प्रकट होना शुरू किया है, तब से मैं भी लगातार सब्जियां खरीद रहा हूं। तेरे प्रकट होने के पसंदीदा फल व सब्जी जैसे टमाटम, पपीता और सेब मैं नियम से खरीद रहा हूं। जेब की सख्त कड़की के बावजूद कोई न कोई जुगाड़ करके सब्जी और कभी-कभी फल खरीद लेता हूं, सिर्फ इस उम्मीद के साथ कि किसी न किसी दिन किसी फल या किसी सब्जी में तू जरूर प्रकट होगा और तब मैं अगला पिछला सारा चुकता कर डालूंगा।
लेकिन तू आज तक नहीं आया। आज सवेरे अखबार की उस खबर ने तो मुझे अंदर से तोड़कर रख दिया है, जिसमें किसी और शहर में एक भाई के घर टमाटर में तेरे प्रकट होने की सूचना दी गई है। आखिर तू मुझे कब तक इस तरह से नजरअंदाज करता रहेगा। कब तक तू इसी तरह मुझे सताता रहेगा। मैं जानता हूं कि तू जानबूझ कर मेरे साथ इस तरह के खेल खेल रहा है। उस दिन जब तेरी मूर्तियां लोगों का दूध गटकने में लगी हुईं थीं, लोग अपने बच्चों के हिस्से का दूध तेरी मूर्तियों को पिला रहे थे, शहर में दूध की कीमतें दुगुनी हो गई थीं, बच्चे बिना दूध के बिलबिला रहे थे लेकिन तू था कि लोगों का दूध बिना डकार मारे पीता जा रहा था। याद है कि मैं भी किसी तरह से एक लोटा दूध का जुगाड़ करके मंदिर पहुंचा था, लाख प्रयास के बाद भी तेरी मूर्ति ने मेरे हाथ से दूध नहीं पिया। मैंने खूब कोशिश की, पर नहीं। शर्म के मारे मुझे वहां मौजूद लोगों के सामने झूठी घोषणा करनी पड़ी कि मूर्ति ने मेरा वाला दूध भी पी लिया है।
और उस दिन, जब मेरे पड़ोस के एक घर में रखी तेरी तस्वीर में आशीर्वाद की मुद्रा में उठी हथेली से बभूति गिरने लगी थी। देखते ही देखते पड़ोसी के घर में भक्तों का तांता लग गया था। लोग अंदर जाते और तेरी हथेली से गिरी हुई उस बभूति का टीका माथे पर लगाकर बाहर लौट आते। थोड़ा सा पुण्य, सच पूछो तो मैं जब भी कोई पुण्य कार्य करने की सोचता हूं, तो अंदर से सागर पार होने या फिर मोक्ष की कोई लालस नहीं होती बस किसी पुण्य से थोड़ा पैसा आ जाए और लाला का पिछला दो महीने का हिसाब चुकता कर दूं, यही मेरी लालसा रहती है। तो इसी लालसा को लिए हुए मैं भी अपने उस पड़ोसी के घर गया था। हालांकि वह पड़ोसी बड़े खडूस किस्म का इंसान था, हम जैसों से बात करना तो वह अपनी शान के खिलाफ समझता था। स्थिति की नजाकत को भांपते हुए मैंने भी उससे पिछले दो-तीन साल से कोई बात नहीं की थी। लेकिन आज वह वैसा खडूस नहीं लग रहा था। मैं गेट पर पहुंचा तो उसने स्वागत किया और सीधे तेरी उस तस्वीर तक ले गया, जिसकी हथेली से बभूति गिर रही थी। पड़ोसी भेंट सामने रखे पात्र में डालने और हथेली को गौर से देखते रहने की हिदायत देकर बाहर चला गया। उस दिन भी तूने मेरे साथ धोखा किया। काफी देर तक मैं वहां बैठा रहा, पर मजाल क्या कि तेरी तस्वीर ने एक तिनका भी बभूति का टपकाया हो। अलबत्ता भेंट जो देनी पड़ी वह नुकसान अलग करवा दिया। लेकिन बाहर आने से पहले तस्वीर के पास जल रही अगरबत्ती की राख मुझे माथे पर लगानी पड़ी, ऐसा नहीं करता तो तेरे भक्त मुझे पापी करार दे देते।
चल कोई बात नहीं, इतने दिन कड़की में काटे, कुछ दिन और सही, लेकिन अबकी बार ऐसा मत करना, अब जरूर मेरे घर में आना। और हां, कड़की कुछ ज्यादा चल रही है यार। लगातार कलम घिसाई के बाद भी इतना नहीं मिलता कि आटा और नमक के बाद सब्जी और फल भी खरीद लू। हां इन दिनों अमरूद काफी सस्ता चल रहा है। मुझे लगता है कि दो तीन अमरूद रोज खरीद ही लूंगा। इसलिए तू जिस भी दिन मेरे घर आए अमरूद में ही आना। पर देर न लगाना, इस अमरूद का भी क्या भरोसा, पता नहीं कब महंगा हो जाए।
अब मैंने सब कुछ तेरे ऊपर छोड़ दिया है। मैं जितना कर सकता था, कर लिया। खूब मेहनत की। पर क्या मिला? जितना कमा पाया, वह इतना कम है कि बताते हुए शर्म आती है और जिस रकम को बताते हुए शर्म आए उसमें बच्चों को कैसे पाला जा रहा है, इसे तू अच्छी तरह से समझ सकता है। पर पता नहीं क्यों तू मेरी प्रोब्लम समझने के लिए ही तैयार नहीं है। यह आखिरी मौका है या तो मेरे घर में अमरूद में आ या फिर मुझे में उसी तरह लिफ्ट करवा दे जैस अदनाम सामी को किया था, या फिर मुझे भी मेरे उस मूर्ख सहयोगी की तरह गाड़ी, मकान और बटुए में पांच-पांच सौ के नोट दिला दे, यदि अब भी तूने ऐसा नहीं किया तो याद रखना एक और व्यंग्य लिख मारूंगा। फिर न बोलना क्यों लिख दिया।

Followers

About Me

My photo
बसुकेदार रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड, India
रुद्रप्रयाग जिला के बसुकेदार गाँव में श्री जनानन्द भट्ट और श्रीमती शांता देवी के घर पैदा हुआ। पला-बढ़ा; पढ़ा-लिखा और २४साल के अध्धयन व् अनुभव को लेकर दिल्ली आ गया। और दिल्ली से फरीदाबाद। पिछले १६ साल से इसी शहर में हूँ। यानी की जवानी का सबसे बेशकीमती समय इस शहर को समर्पित कर दिया, लेकिन ख़ुद पत्थर के इस शहर से मुझे कुछ नही मिला.