(एक)
यूं तो मैं अपनी घर-गृहस्थी और नौकरी की चिन्ता में ही इतना व्यस्त रहता हूं कि बाक चीजों के बारे में सोचने की न तो कभी फुर्सत मिलती है और न ही जरूरत महसूस होती है। बावजूद इसके कभी-कभी शौकिया तौर पर मैं दुनिया जहान की चिन्ता कर लेता हूं। न करूं तो दुनिया का कुछ बिगडऩे वाला नहीं है और कर भी लूं तो मुझे कुछ मिलने वाला नहीं है। फिर भी इस उम्मीद के साथ चिन्ता कर लेता हूं कि कभी न कभी तो लोग मुझे बुद्धिजीवी मान ही लेंगे।
बहरहाल पिछले कुछ दिनों से मैं चांद को लेकर काफी चिन्तित हूं। चांद पर चिन्तित होने की एक खास वजह यह भी है कि इस बेचारे पर जाने की बात तो सभी करते हैं, लेकिन इस पर चिन्ता कोई नहीं करता, लिहाजा मैंने फिलहाल इस पर चिन्ता करने का ठेका ले लिया है। बचपन में मैंने पढ़ा था कि अमेरिका सबसे पहले चांद पर पहुंचा। आजकल मेरे बच्चों को भी यही पढ़ाया जा रहा है। जाहिर है कि बीच के तमाम बच्चों को भी यही सब पढ़ाया गया होगा। लेकिन अब कुछ लोग कह रहे हैं कि आज तक चांद पर कोई गया ही नहीं। अमेरिका यदि कहता है कि वह चांद पर गया है तो वह गलत कहता है और चांद बनाम आर्मस्ट्रांग के जो फोटो अमेरिका ने जारी किए थे, उन्हें भी नकली करार दिया जा रहा है।
जो लोग अमेरिका के इस दावे पर शक कर रहे हैं, उनका शक कई कोणों से सच के आसपास ठहरता है। अमेरिका ने यह दावा 1969 में किया था। बाकायदा चांद की तस्वीरें सारी दुनिया के लोगों को दिखाई थीं। तब से पूरी दुनिया के बच्चे उन तस्वीरों को अपनी स्कूल की किताबों में पाते हैं और मान लेते हैं कि नील आर्मस्ट्रांग चांद पर पहुंचने वाले पहले मनुष्य थे। पर एक बात हम भी समझ नहीं पाए हैं कि इतने सालों में विज्ञान में कई नई खोजें हुई हैं। तकनीकी क्षेत्र में पूरी दुनिया ने भारी प्रगति की है,महा मशीन के जरिये ब्रह्माण्ड के रहस्यों को खोजा जा रहा है, लेकिन खुद को विज्ञान और तकनीकी का बादशाह बताने वाला बेचारा अमेरिका इतने साल बाद भी चांद की एक और यात्रा क्यों नहीं कर पाया? इसका जवाब आपको मौका मिले तो अमेरिका जी से जरूर पूछना। मैं आपसे पूछ लूंगा।
अंगुली उठाने वालों के तर्क भी बिल्कुल ठोस हैं। वे कहते हैं, भाई अमेरिका खुद तो तेरे साइंटिस्ट बोलते हैं कि चांद पर हवा नहीं है। वे बेचारे फोटो में चांद पर ऑक्सीजन सिलेंडर पीठ और नलकी नाक पर चढ़ाए हुए नजर आते हैं और बगल में तेरा झंडा बड़ी शान से लहरा रहा होता है। इस झंडे को लहराने के लिए धरती से पाइप लाइन के जरिए हवा पहुंचाई जा रही थी क्या? इस सवाल का जवाब अमेरिका से लोग पूछ चुके हैं, पर उसने पता नहीं क्या जवाब दिया है। आपको कहीं से पता चले तो मुझे जरूर सूचित कर देना, आपकी बड़ी कृपा होगी। (एक सज्जन का जवाब आया है कि अमेरिका के उस झंडे पर स्प्रिंग लगे हुए थे।)
(दो)
वैसे तो अपना सारे जहां से अच्छा फिलहाल कई सालों से चंद्रयान-1 अभियान में ही जुटा हुआ है और पता नहीं कब तक इससे बाहर निकल पाएगा, लेकिन मुझे लगता है कि चांद की चिन्ता एक ऐसा विषय हो सकता है, जो मुझे जल्दी से जल्दी बुद्धिजीवी होने का गौरव दिलवा सकता है, लिहाजा यहां मैं अपने इस अभियान की दूसरी कड़ी चांद की चिन्ता-2 पाठकों के सामने रख रहा हूं।
आज मेरी चिन्ता कुछ दूरगामी परिणामों को लेकर है। जिस तरह से मैं खुद को बुद्धिजीवी साबित करवाने के लिए चांद की चिन्ता मिशन पर काम कर रहा हूं, ठीक उसी तरह से दुनिया के बहुत सारे देश खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए चांद पर पहुंचने के मिशन में जुटे हुए हैं। इस मिशन में लगभग सभी विकसित देश तो शामिल हैं ही, अनेक विकासशील देश भी शामिल हैं। कुछ देश कह रहे हैं कि चांद को खोदकर हीलियम-3 ले आएंगे और धरती पर उससे बिजली बनाएंगे। कुछ की नजर वहां जमी बर्फ पर है वे उस बर्फ से ऑक्सीजन और हाइड्रोजन निकालने की फिराक में हैं और कुछ तो इससे और आगे बढ़कर वहां होटल बनाना चाहते हैं। ये लोग इसका भी प्रबंध कर रहे हैं कि चांद पर किस तरह ऐसा होटल बने कि वह वहां के वॉक्यूम में हिले-डुले नहीं और उसमें आदमी सीधा रह सके।
अब आप जरा मेरी चिन्ता में शामिल हो जाइए। सोचिए, सचमुच ही कुछ सालों में धरती के लोग चांद पर पहुंचने लगें, एक के बाद एक देश वहां पहुंच जाएं, उसके बाद क्या होगा वहां पर? धरती पर तो हमने देशों की सीमाएं बांध रखी हैं, लेकिन चांद पर तो फिलहाल ऐसा नहीं है। वहां क्या होगा? मेरी चिन्ता तो सबसे बड़ी उन प्राइवेट और बहुराष्टरीय कंपनियों को लेकर जो सब कुछ अपने पास समेटना चाहती हैं। इन कंपनियों से हमारी सरकारें कैसे निपटेंगी।
आपको याद होगा कि एक बार हरिशंकर परसाई जी ने इंस्पेक्टर मातादीन को चांद पर भेजा था। एक मातादीन ने ही चांद की सारी की सारी व्यवस्था की ऐसी की तैसी कर दी थी, उस चांद पर यदि तमाम देश और बहुराष्टरीय कंपनियां पहुंचें तो वहां की स्थिति क्या होगी? मुझे तो लगता है कि वे सब मिलकर चांद को इतना खोद डालेंगे कि उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। इस स्थिति का मेरे शहर के लोगों पर तो सिर्फ इतना असर पड़ेगा कि उनकी पत्नियों को करवाचौथ की पूजा के लिए कोई नया तरीका निकालना पड़ेगा और प्रेमियों अपनी पे्रमिकाओं की चेहरे की तुलना के लिए कोई और उपमान ढूंढऩा पड़ेगा, लेकिन उन गांव वालों का क्या होगा, जिनके लिए सदियों से चंद की रोशनी बड़ा सहारा रही है और आज भी रात में वे चांद की रोशनी पर ही निर्भर हैं, क्योंकि बिजली वालों को छठे-चौमासे ही गांव याद आते हैं।
Sunday, October 31, 2010
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- त्रिलोचन भट्ट
- बसुकेदार रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड, India
- रुद्रप्रयाग जिला के बसुकेदार गाँव में श्री जनानन्द भट्ट और श्रीमती शांता देवी के घर पैदा हुआ। पला-बढ़ा; पढ़ा-लिखा और २४साल के अध्धयन व् अनुभव को लेकर दिल्ली आ गया। और दिल्ली से फरीदाबाद। पिछले १६ साल से इसी शहर में हूँ। यानी की जवानी का सबसे बेशकीमती समय इस शहर को समर्पित कर दिया, लेकिन ख़ुद पत्थर के इस शहर से मुझे कुछ नही मिला.