अब इराक वालों को इस बात पर घमंड नहीं करना चाहिए की जूता सिर्फ़ उनके यहाँ ही चलता है। हमने साबित कर दिया है की हमारे यहाँ भी कैसे कैसे जरनैल बैठे हैं, जिनका असली काम तो कलम चलाना ही है, लेकिन कभी कभी वे टेस्ट बदलने के लिए जूता भी चला सकते है। बल्कि हमारे जरनैल तुमारे जैदी से भी आगे हैं। तुमारे जैदी ने तो दुसरे देश के राष्ट्रपति को जूता मारा था, हमारे जरनैल ने तो अपने ही मंत्री को मार दिया।
वैसे मेरी पूछो तो मुझे आज जैदी पर बहुत तरस आ रहा है। उस बेचारे ने प्रेस कान्फरेंस में जूता चलाने का जो अदभुत तरीका ईजाद किया था, उसे वह अपने नाम पर पेटेंट नहीं कर पाया, नतीजा ये निकला की आज उसका निकाला हुआ तरिका भारत के पत्रकार भी चोरी कराने लगे हैं। इस मामले में मुझे अपने आप पर और इस देश का वासी होने पर भी शर्म आ रही है। इतिहास गवाह है की हम भारतीय हर मामले में सबसे आगे रहे हैं, फ़िर जूता फेकने के इस मामले में क्यों इतने फिस्सडी निकले की हमें इराक जैसे देश की नक़ल करनी पड़ी। अरे भाई सिख विरोधी दंगे 2५साल पहले हो गए थे, तो फ़िर जूता मारने में क्यों इतनी देर की गई?
वैसे जूतों का भी एक इतिहास रहा है और जूते मारना, जूते खाना और जूते चलाना समाज में काफ़ी प्रचलित रहा है। खाने और चलाने के अलावा जूते परोसने के काम भी आते हैं। एक बार एक सज्जन ने जूतों में दाल परोस दी थी। वह घटना इतने फेमस हुई की अब जगह जगह जूतों में बंटती रहती है। एक और सज्जन थे, जिन्होंने जूतों का यार कहकर ये बताने का प्रयास किया था की इस जमाने में आपका यार-दोस्त वही हो सकता है, जिसे आप जूते मारोगे, प्यार मोहब्बत तो गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। और गुजरे जमाने की बातें सब बेकार हैं। फिलहाल अपने जरनैल ने जो किया, कितना अच्छा होता की वह बजाय नक़ल के मौलिक होता?
Tuesday, April 7, 2009
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- त्रिलोचन भट्ट
- बसुकेदार रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड, India
- रुद्रप्रयाग जिला के बसुकेदार गाँव में श्री जनानन्द भट्ट और श्रीमती शांता देवी के घर पैदा हुआ। पला-बढ़ा; पढ़ा-लिखा और २४साल के अध्धयन व् अनुभव को लेकर दिल्ली आ गया। और दिल्ली से फरीदाबाद। पिछले १६ साल से इसी शहर में हूँ। यानी की जवानी का सबसे बेशकीमती समय इस शहर को समर्पित कर दिया, लेकिन ख़ुद पत्थर के इस शहर से मुझे कुछ नही मिला.