Friday, October 30, 2009

अब dehradun

दोस्तों
कई सालों तक फरीदाबाद में रहने के बाद मैंने ये शहर छोड़ दिया है। अब मैं देहरादून में हू। फिलहाल ज्यादा लिखने का वक्त नहीं है, फ़िर कभी मुलाकात होगी ।

Tuesday, April 7, 2009

जूता पहुंचा हिंदुस्तान (व्यंग्य)

अब इराक वालों को इस बात पर घमंड नहीं करना चाहिए की जूता सिर्फ़ उनके यहाँ ही चलता है। हमने साबित कर दिया है की हमारे यहाँ भी कैसे कैसे जरनैल बैठे हैं, जिनका असली काम तो कलम चलाना ही है, लेकिन कभी कभी वे टेस्ट बदलने के लिए जूता भी चला सकते है। बल्कि हमारे जरनैल तुमारे जैदी से भी आगे हैं। तुमारे जैदी ने तो दुसरे देश के राष्ट्रपति को जूता मारा था, हमारे जरनैल ने तो अपने ही मंत्री को मार दिया।
वैसे मेरी पूछो तो मुझे आज जैदी पर बहुत तरस आ रहा है। उस बेचारे ने प्रेस कान्फरेंस में जूता चलाने का जो अदभुत तरीका ईजाद किया था, उसे वह अपने नाम पर पेटेंट नहीं कर पाया, नतीजा ये निकला की आज उसका निकाला हुआ तरिका भारत के पत्रकार भी चोरी कराने लगे हैं। इस मामले में मुझे अपने आप पर और इस देश का वासी होने पर भी शर्म आ रही है। इतिहास गवाह है की हम भारतीय हर मामले में सबसे आगे रहे हैं, फ़िर जूता फेकने के इस मामले में क्यों इतने फिस्सडी निकले की हमें इराक जैसे देश की नक़ल करनी पड़ी। अरे भाई सिख विरोधी दंगे 2५साल पहले हो गए थे, तो फ़िर जूता मारने में क्यों इतनी देर की गई?
वैसे जूतों का भी एक इतिहास रहा है और जूते मारना, जूते खाना और जूते चलाना समाज में काफ़ी प्रचलित रहा है। खाने और चलाने के अलावा जूते परोसने के काम भी आते हैं। एक बार एक सज्जन ने जूतों में दाल परोस दी थी। वह घटना इतने फेमस हुई की अब जगह जगह जूतों में बंटती रहती है। एक और सज्जन थे, जिन्होंने जूतों का यार कहकर ये बताने का प्रयास किया था की इस जमाने में आपका यार-दोस्त वही हो सकता है, जिसे आप जूते मारोगे, प्यार मोहब्बत तो गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। और गुजरे जमाने की बातें सब बेकार हैं। फिलहाल अपने जरनैल ने जो किया, कितना अच्छा होता की वह बजाय नक़ल के मौलिक होता?

Sunday, March 29, 2009

इसे कहते है अच्छी पहल

स्कूल कोलेजों में परीक्षाओ से पहले विदाई पार्टियां होती हैं। ऐसी पार्टियों में आम तौर पर नाचना, गाना और खाना होता है, लेकिन फरीदाबाद के अग्रवाल कालेज की छात्राओ ने ऐसा विदाई समारोह आयोजित किया जिसे वास्तव में एक अच्छी पहल कहा जा सकता है। कला संकाय की छात्राओ ने इस समारोह के लिए हिन्दी प्रद्यापिका सीमा भारद्वाज को संयोजक बनाया। सीमा ने यह समारोह नए तरीके से आयोजित करने की योजना बनाई इसमे नाचना, गाना और खाना शामिल नहीं था। दूसरे संकाय वालों को ये बड़ा अजीव लगा। दरअसल विदाई पार्टी का तो मतलब ही नाचना, गाना होता है। कई छात्राओं ने भी इस तरीके का विरोध किया, लेकिन सीमा ठान चुकी थी। आख़िर कर विदाई समारोह शुरू हुआ। सीमा ने शुरुआत की और फ़िर छात्राओं ने कई मुद्दों पर अपने सीनियरों से सवाल पूछे। इन विषयों में महिला सशक्तिकरण जैसा मुद्दा प्रमुख था। अंत में सीमा ने अपने संबोधन में कहा की जिन्दगी केवल खाना-पीना, नाचना और गाना ही नही है। जब हम आपस में बैठें तो कुछ गंभीर मुद्दों पर भी चर्चा करनी चाहिए और खासकर लड़कियों को। क्योंकि आज महिलायें केवल चौके चूल्हे तक ही सीमित नहीं हैं। इस पार्टी के लिए छात्राओं ने जो बीस हजार रूपये जमा किए थे वे कोलेज के प्रिंसिपल को ये कहकर सौंप दिए की इन पैसों से उन छात्राओं की मदद की जाए जो फीस नहीं भर पाती। छात्राओं ने एक साल में और एक लाख रूपये गरीब छात्राओं की मदद के लिए देने को कहा। सीमा के अनुसार हर छात्रा महीने में इस फंड में दस रूपये जमा करेगी
इस अच्छी पहल के लिए सीमा को साधुवाद।

Saturday, March 28, 2009

एक परिचय

दोस्तों
इस ब्लॉग को बनाते समय मेरे जेहन में कई बातें हैं। दरअसल लिखने का सिलसिला कई सालों से चल रहा है। लेकिन में हमेशा महसूस करता रहा कि जिन लोगों के लिए मैं लिखता रहा उन तक तो पहुँच ही नहीं पाया। इस ब्लॉग के माध्यम से मैं अपनी बात आप तक पहुंचाने का प्रयास करूंगा। आज बस इतना ही।
धन्यवाद्

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बसुकेदार रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड, India
रुद्रप्रयाग जिला के बसुकेदार गाँव में श्री जनानन्द भट्ट और श्रीमती शांता देवी के घर पैदा हुआ। पला-बढ़ा; पढ़ा-लिखा और २४साल के अध्धयन व् अनुभव को लेकर दिल्ली आ गया। और दिल्ली से फरीदाबाद। पिछले १६ साल से इसी शहर में हूँ। यानी की जवानी का सबसे बेशकीमती समय इस शहर को समर्पित कर दिया, लेकिन ख़ुद पत्थर के इस शहर से मुझे कुछ नही मिला.